नयी सदी का हिंदी सिनेमा
बीते पन्द्रह बरस का सिनेमा अपनी कुछ ज़रूरी और गैर ज़रूरी बातों के लिए इतिहास में याद किया जाएगा। इस दौर में स्त्री चीज़ से तंदूरी मुर्गी, जलेबीबाई, मुन्नी और भी न जाने क्या क्या बनी। लेकिन इस डेढ़ दशक के दौर को याद किया जाएगा लगान (2001), ब्लैक (2005), लगे रहो मुन्ना भाई (2006), चक दे इंडिया(2007), तारे ज़मीन पर (2007), अ वेडनेसडे (2008), थ्री इडियट्स (2009), पा (2010), पान सिंह तोमर (2012), गैंग ऑफ़ वासेपुर (2012), लंचबॉक्स (2014), रंगरसिया(2014) आदि के लिए। इनके अलावा ब्लैक फ्राइडे, क्या दिल्ली क्या लाहौर, परिणीता, गांधी माय फादर, पिंजर, गंगाजल, इक़बाल, फेरारी की सवारी ओमकारा आदि भी इस अवधि की उपलब्धियां हैं। हिंदी सिनेमा की समस्या यह है कि जो सौ करोड़ी फ़िल्में हैं उनमें से प्रायः 90 प्रतिशत बकवास और दोहराव का शिकार हैं। जो अच्छी और नए विषय की फ़िल्में हैं, उनका बॉक्स ऑफिस हश्र प्रायः अच्छा नहीं होता। शायद भारत में अभी दर्शकों का टेस्ट डेवलप नहीं हो सका है, तभी तो इन फिल्मों में दरवाजा खुला रखकर बुलाने वाले आमन्त्रण देते गाने सफल हो जाते हैं और अच्छे गाने कहीं खो जाते हैं। इस पर भी...