साहित्य, समाज और सिनेमा
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि इस नज़रिए से सिनेमा को देखा जाए तो सिनेमा को समाज की अन्तर्शिराओं में बहने वाले रक्त की संज्ञा दी जा सकती है। प्रारम्भ से ही सिनेमा ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव छोड़े हैं। भारत की पहली फिल्म सत्य हरिश्चन्द्र देखकर बालक मोहनदास करमचंद गांधी रो पड़े थे और ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सत्यनिष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने आजीवन सत्य बोलने का व्रत ले लिया था। वास्तव में इस फिल्म ने ही उन्हें मोहनदास से महात्मा गांधी बनने की दिशा में पहला कदम रखने हेतु प्रेरित किया था। स समाज, न नवीन, म मोड़ अर्थात् सिनेमा ने समय-समय पर समाज को नया मोड़ देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साहित्य ने भी समाज के इस महत्त्वपूर्ण दृश्य-श्रव्य माध्यम के पुष्पन-पल्लवन में अपना योगदान किया है। यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ, तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भक्त प्रह्लाद’, ‘लंका दहन’, ‘कालिय मर्दन’, ‘अयोध्या का राजा’, ‘सैरन्ध्री’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मि...