वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री पुस्तक का अंश

मेरी बात जिस समय आपने यह पुस्तक पढ़ने के लिए हाथ में ली होगी, उस समय आप यह देखकर चौंक पड़े होंगे कि एक पुरुष स्त्री विमर्श के वैदिक काल से आज तक के इतिहास को कलमबंद कर रहा है. औरों की भांति आपके मन में भी यह विचार जन्मा होगा कि एक पुरुष भला कैसे स्त्री की गाथा को लिख सकता है और क्या वह अपने लेखन में स्त्री की व्यथा, उसके स्वप्न और संघर्ष को वाणी देने में सफल हो सकेगा ! मैंने भी जब यह पुस्तक लिखने की सोची तो मेरे मन में बड़ी दुविधा थी कि मैं इस विषय पर लिखते समय क्या पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चिन्तन कर सकूँगा लेकिन लम्बे अंतर्मंथन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि एक स्त्री का स्त्री विषयक चिंतन उसकी अपनी सीमाओं में कैद रहता है और वह पुरुष को खलनायक बनाकर ही स्त्री विजय की दुन्दुभि बजाने का प्रयास करती नज़र आती है. यह शिकायत मुझ समेत प्रायः प्रत्येक पुरुष की रहती है. इस दृष्टि से एक पुरुष का स्त्री विषयक चिंतन अनुभूति की प्रामाणिकता के चौखटे पर भले खरा न बैठता प्रतीत हो किन्तु उससे निष्पक्षता और निस्पृहता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. यही विचार मन में लाने के बाद मेरी हिचक ख़त्म ...