ये तो हमारी संस्कृति नहीं !!!!
इस देश में शास्त्रार्थ की अत्यंत स्वस्थ परम्परा रही है। विभिन्न सम्प्रदायों के बीच स्वस्थ बहस से भारतीय मनीषा ने अपने ज्ञान को विस्तृत किया है। परस्पर विरोधी अवधारणाएं एक ही समय में न सिर्फ रहीं बल्कि उन्होंने एक दूसरे को प्रभावित करने का काम भी किया। दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति की आराधना पद्धति आर्य परम्परा में ऐसी घुल मिल गयी कि कोई यह कह ही नहीं सकता कि यह पद्धति हमारे क्षेत्र की नहीं है। क्या आज कोई विश्वास के साथ बता सकता है कि हममें से आर्य, शक, हूण, यक्ष, नाग, कोल, किरात जाति का कौन है। ये सब हममें घुलमिल गईं। हमने वेद को स्वीकारा तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप रचे उपनिषद को भी स्वीकारा। तुलसी हमारे हैं तो कबीर भी हमारे हैं, सूफी भी हमारे अपने हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, मुसलमान, यहूदी, पारसी, ईसाई सबको हमने उनके आराधना पद्धति और धर्म के साथ अपनाया लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद से हमारी सहिष्णुता में कमी आयी, जिसके परिणामस्वरूप देश के कई टुकड़े हुए और बर्मा, अफगानिस्तान, भूटान, नेपाल तथा तिब्बत को चुपचाप हमसे अलग करने के बाद जाते-जाते वे पाकिस्तान बनाकर कभी न भरने वाला ज़ख्...