साहित्य और सिनेमा

यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ , तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई. ‘ सत्य हरिश्चन्द्र ’, ‘ भक्त प्रह्लाद ’, ‘ लंका दहन ’, ‘ कालिय मर्दन ’, ‘ अयोध्या का राजा ’, ‘ सैरन्ध्री ’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं का अंकन थीं. इन फिल्मों का धार्मिक और आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्य भी था. चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की भी आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा और इसके लिए समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर देखना लाज़मी हो गया. नतीजा यह हुआ कि सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा. मण्टो की लेखनी से ‘ किसान कन्या ’, ‘ मिर्ज़ा गालिब ’, ‘ बदनाम ’ जैसी फि़ल्में निकलीं. प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए. बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास , पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र , मनोहरश्याम जोशी , अमृतलाल नागर , कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव , रामवृक्ष बेनीपुरी , भगवतीचरण वर्मा , राही मासूम रज़ा , सुरेन्द्र वर्मा ,...