पुरुष भावनाओं की अभिव्यक्ति है यायावर
आजकल साहित्य में स्त्री विमर्श की बड़ी धूम है. स्त्रियों के अधिकारों, उनकी व्यथाओं एवं पीड़ा के आख्यानों की चर्चा से साहित्य गुंजायमान है. परन्तु पुरुष की भावनाएँ, उसकी अपेक्षाएँ तथा ज़रूरतें साहित्य से प्रायः बहिष्कृत हैं. इसका कारण यह दिया जाता है कि सदियों से पुरुष ने स्त्रियों पर अत्याचार किए हैं और स्त्री ने उन अत्याचारों को मौन होकर सहा है, इसलिए स्त्री की पीड़ा का बखान ज़रूरी है. यह बात सच भी है लेकिन क्या इसी आधार पर पुरुष की वेदना के आख्यानों को साहित्य से देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए और उसकी आवाज़ का गला घोंट दिया जाना चाहिए? मेरे विचार से ऐसा करना समस्या को एकांगी दृष्टिकोण से देखना होगा. हिन्दी साहित्य में बहुत कम ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने पुरुषों की पीड़ा पर अपनी कलम चलाई है. आचार्य निशांतकेतु के बाद यदि किसी लेखक का नाम जेहन में आता है तो वह हैं चन्द्र विजय प्रसाद ‘चन्दन’ जी. चन्दन जी इससे पहले ‘लौट आओ सिम्मी’ उपन्यास के माध्यम से एक किशोर प्रेमी की कोमल अनुभूतियों एवं निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति कर चुके हैं. समीक्ष्य ‘यायावर’ लघु उपन्यास के माध्...