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Showing posts from July, 2015

आदिवासी समाज के इतिहास की दारुण गाथा है ‘आदिवासी अभिव्यक्ति’

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भाई रवि कुमार गोंड़ आदिवासी लेखकों में तेज़ी से पहचान बनाने वाला नाम है. इस युवा साहित्यकार ने साहित्य जगत में बीते कुछ वर्षों में अपने निरंतर लेखन से हमारा ध्यान खींचा है. रवि की नवीनतम उपलब्धि है उनकी हाल ही में प्रकाशित लम्बी कविता 'आदिवासी अभिव्यक्ति',जिसकी शुभाशंसा लिखने का सौभाग्य मुझे मिला है. पेश है मेरे द्वारा लिखित शुभाशंसा आदिवासी समाज के इतिहास की दारुण गाथा है ‘आदिवासी अभिव्यक्ति’ बीते कुछ वर्षों में आदिवासी विमर्श ने समकालीन हिन्दी साहित्य में तेज़ी से अपनी दस्तक दी है. आदिवासी विचारधारा और दर्शन को बढ़ाने में जिन साहित्यकारों का योगदान रहा है, उनमें युवा कवि समीक्षक रविकुमार गोंड का नाम प्रमुखता से लिया जाना चाहिए. रवि ने अत्यल्प आयु में साहित्य जगत के इस अपेक्षाकृत नए विमर्श को अपने गम्भीर चिंतन एवं वैचारिक आयामों से समृद्ध करने का सराहनीय प्रयास किया है. रवि समीक्ष्य लम्बी कविता ‘आदिवासी अभिव्यक्ति’ के माध्यम से हमें आदिवासियों के उस संसार में ले जाते हैं, जहाँ का इतिहास कतिपय निहित स्वार्थों के कारण आज तक उपेक्षित ही रहा और उन्हें इतिहास-पुराण  के सबसे न...

वर्तमान समय में विश्व को गाँधी की ज़रूरत है

जब-जब समाज में हिंसा, पराधीनता और राजनातिक मूल्यों में कमी की बात की जाएगी, तब तब हमें गांधीजी की याद करनी ही होगी. चाहे नेल्सन मंडेला हों, या मार्टिन लूथर किंग जूनियर, आंग सान सू की हों या बराक ओबामा. शांति और समानता की चर्चा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति गाँधी की चर्चा किये बगैर अपनी बात को पूर्ण नहीं बना सकता. यही कारण है कि आज आतंक से कराह रही मानवता को रह रहकर पीछे लौटना पड़ता है और गाँधी के आदर्शों की ओर प्रेरित करने हेतु लोगों का आह्वान करना पड़ता है. ऐसा क्या था उस लंगोटी वाले नंगे फकीर में, जिसने उसके जाने के आज 67 बरस बीतने के बावजूद उसे लोगों के दिलों में जीवित कर रखा है? वास्तव में यह गांधीजी की भारतीय मूल्यों में गहरी आस्था थी, जिसने उन्हें एक साधारण व्यक्ति से करिश्माई व्यक्ति में बदल दिया. डी जी तेंदुलकर ने बिहार में सन 1922 में बिहार में गाँधी जी को मिले अभूतपूर्व समर्थन की चर्चा करते हुए लिखा है, “ अभूतपूर्व दृश्य देखने को मिले. बिहार के गाँव में जहाँ गाँधी और उनके साथी पटरी पर खड़ी ट्रेन में मौजूद थे, एक वृद्धा उनको ढूँढ़ते हुए आयी और बोली, महाराज, मेरी उम्र अब एक सौ चार...

वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री पुस्तक का अंश

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मेरी बात जिस समय आपने यह पुस्तक पढ़ने के लिए हाथ में ली होगी, उस समय आप यह देखकर चौंक पड़े होंगे कि एक पुरुष स्त्री विमर्श के वैदिक काल से आज तक के इतिहास को कलमबंद कर रहा है. औरों की भांति आपके मन में भी यह विचार जन्मा होगा कि एक पुरुष भला कैसे स्त्री की गाथा को लिख सकता है और क्या वह अपने लेखन में स्त्री की व्यथा, उसके स्वप्न और संघर्ष को वाणी देने में सफल हो सकेगा ! मैंने भी जब यह पुस्तक लिखने की सोची तो मेरे मन में बड़ी दुविधा थी कि मैं इस विषय पर लिखते समय क्या पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चिन्तन कर सकूँगा लेकिन लम्बे अंतर्मंथन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि एक स्त्री का स्त्री विषयक चिंतन उसकी अपनी सीमाओं में कैद रहता है और वह पुरुष को खलनायक बनाकर ही स्त्री विजय की दुन्दुभि बजाने का प्रयास करती नज़र आती है. यह शिकायत मुझ समेत प्रायः प्रत्येक पुरुष की रहती है. इस दृष्टि से एक पुरुष का स्त्री विषयक चिंतन अनुभूति की प्रामाणिकता के चौखटे पर भले खरा न बैठता प्रतीत हो किन्तु उससे निष्पक्षता और निस्पृहता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. यही विचार मन में लाने के बाद मेरी हिचक ख़त्म ...

अम्बेडकर की अंतर्वेदना पुस्तक की समीक्षा

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डॉ राम भरोसे हरिद्वार में हिन्दी के प्राध्यापक हैं. आपने मेरी पुस्तक अम्बेडकर की अंतर्वेदना की समीक्षा लिखी है . पेश है समीक्षा आप मित्रों के लिए --- ***आजकल बाबा साहेब से सम्बंधित अति महत्वपूर्ण पुस्तक पढ़ रहा हूँ. जिसका शीर्षक है ‘अम्बेडकर की अंतर्वेदना’ और इसके लेखक द्वय हैं शेषराव चव्हाण जी व डॉ. पुनीत बिसारिया जी. इस पुस्तक की प्रति मेरे आग्रह पर स्वयं मेरे मित्र-लेखक डॉ. पुनीत जी ने उपलब्ध कराई. अभी इस पुस्तक का कुछ अंश पढ़ना शेष है. परन्तु जितना भी इस पुस्तक को पढ़ पाया हूँ यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं हो रही है कि अम्बेडकर को मानने और समझने वालों को यह पुस्तक अनिवार्य रूप से पढनी चाहिए. बल्कि निश्चित ही बौद्ध धर्म को भी काफी हद तक समझने में इस पुस्तक से मदद मिलेगी. अंतिम समय में बाबा साहेब की मन की व्यथा, छटपटाहट-पीड़ा के मुख्य कारण क्या रहे.? आखिर क्या कारण था कि अपने अंतिम समय में उन्हें कहना पड़ा “मैं अपने समाज के पढ़े-लिखे लोगों से सर्वाधिक निराश हूँ और अब मेरी आशा का केंद्र बिंदु अशिक्षित लोग हैं.’’ इन्ही सच्चाई और गहराइयों की पड़ताल करती है यह पुस्तक. इस सच को मानने में भी...

यादे फैज़ाबाद .

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फैज़ का अरबी में अर्थ है विजेता और सफल लेकिन फैज़ाबाद शहर का दुर्भाग्य है कि न तो यह नाम के मुताबिक विजेता है और न ही सफल. अवध के पहले नवाब सआदत  अली खां ने सन 1730  में जब यह शहर बसाया और इसे अपनी राजधानी बनाया था, तब शायद उन्होंने सोचा होगा कि ये शहर अपने नाम के अनुरूप सफल विजेताओं का शहर साबित होगा लेकिन वे खुद बहुत कम समय यहाँ रह सके.करनाल के युद्ध में नादिरशाह के खिलाफ मुगलों की ओर से लड़ते हुए वे 19 मार्च सन 1739 को मारे गए;  अवध के दूसरे नवाब सफदरजंग के बाद तीसरे नवाब शुजाउद्दौला के जमाने में इस शहर ने भव्यता की पराकाष्ठा को छुआ. किला, गुलाबबाड़ी, मोतीमहल, बहू बेगम का मक़बरा जैसीअवध की शान कही जाने वाली इमारतें उसी के दौर में बनीं. उनके सलाहकार दराब अली खां ने सन 1816 में उनकी बेगम की मृत्यु के पश्चात् तीन लाख रूपए की लागत से उनका मक़बरा बनवाया जो अवध की स्थापत्य कला का श्रेष्ठ नमूना है. अवध के चौथे नवाब आसफुद्दौला ने यदि सन 1775 में अवध की राजधानी को फैज़ाबाद से लखनऊ न शिफ्ट किया होता तो कौन जाने आज उत्तर प्रदेश की राजधानी फैज़ाबाद होती. ...

साहित्येतिहास के काल विभाजन के नामकरण का एक लघु प्रयास

एक इतिहास यह भी  साहित्येतिहास एक ऐसा विषय रहा है, जो प्रत्येक दौर में आलोचकों को चुनौती देता रहा है क्योंकि साहित्येतिहास न तो कभी खत्म हो सकता है और न ही इसे कोई अंतिम रूप से लिख सकता है। साहित्येतिहास लेखन करते समय समकालीन साहित्य हमारे लिए एक बड़ी मुश्किल खड़ी करता है और प्राचीन साहित्य के क्षेत्र में नवीनतम अनुसंधान से प्राप्त तथ्य पूर्ववर्ती साहित्य के इतिहास लेखन के रास्ते में नए पग चिह्न बना देते हैं, जिनकी उपेक्षा करना मुमकिन नहीं होता। नवीनतम सांस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवं सामाजिक घटनाक्रम साहित्य पर अपने तीखे निशान छोड़ जाते हैं, जिनकी पहचान करना साहित्येतिहास लेखक की बुद्धिमत्ता की कसौटी होता है। इसके अतिरिक्त साहित्येतिहास लेखन की परंपरा और नवीनतम साहित्य के अद्यतन स्वरूपों का ज्ञान भी एक बड़ा प्रश्न है जिससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। साहित्य के इतिहास को नए विमर्शों से जोड़ने के लिए शुक्ल जी के इतिहास से बाहर आना आवश्यक है, लेकिन दुर्भाग्यवश आज एक भी ऐसा समीक्षक नहीं दीखता, जो इस चुनौती को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने का साहस कर सके। साहित्येतिहास लेखन गहन...

अप्रिय सवालों से जूझती पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी नाकोहस

पुरुषोत्तम अग्रवाल की ख्याति एक आलोचक के तौर पर है। पाखी  में उनकी कहानी नाकोहस प्रकाशित हुई है। जब मैंने इस कहानी को पढ़ा तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इस कहानी के माध्यम से एक आलोचक यह बताना चाहता है कि एक कथाकार को कैसे कहानी लिखनी चाहिए और वर्तमान समय के वे कौन से हौलनाक सच हैं, जिन्हें आज की कहानी में गढ़ा और मढ़ा जाना चाहिए। एक कलात्मक औदात्य के बोझ से लहूलुहान यह कहानी उत्तर आधुनिक समाज की गप्प गोष्ठियों, मिथकीय अंतर्द्वंद्वों तथा सांप्रदायिक सवालों से जूझती है। समालोचन में राकेश बिहारी ने इसे कथाहीन कहानी कहा है। मैं इससे आगे बढ़कर कहना चाहता हूँ कि यह कहानी वास्तव में कहानी न होकर एक ऐसा विमर्श है जिसमे कहानी की छौंक लगाने का असफल प्रयास किया गया है। गज- ग्राह कथा, पंचतंत्र की कहानियों, नचिकेता, ईसा मसीह, इब्ने सिन्ना इज्तिहादी, वाल्तेयर, लाओत्से, एलिस इन वंडरलैंड के सन्दर्भ के बहाने वे पाठकों को जिस सम्मोहनकारी दुनिया में ले जाना चाहते हैं, वास्तव में वे उसे वहां तक नहीं ले जा पाते और पाठक यह जान पाने में असमर्थ रहता है कि 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है'। विवरणों की बहु...

बुद्ध की ज़रूरत आज भी है

गौतम बुद्ध विश्व के एकमात्र ऐसे महामानव थे, जिन्होंने पीडि़त मानवता को कष्टों से मुक्ति का राह दिखाई। उन्होंने मनुष्यत्व को प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए मानवता को दुःखों से निवृत्ति हेतु अष्टांग मार्ग का सन्देश दिया। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बुद्ध जिस प्रक्रिया से होकर गुजरे थे, उसका विश्लेषण करते हुए श्रीलंकाई बौद्ध धम्मदासी भिक्खु केनेथ बी. गुणतुंगे अपनी पुस्तक ‘ह्वाट इज़़ रियलिटी’ में लिखते हैं-“आज से 2500 साल पहले युवा सिद्धार्थ उस मृत्यु की तलाश में अकेले ही निकल पड़े, जो उस समय तक अनजानी, अनसुनी और अज्ञात विचारधारा थी, जिसके रहस्यों से उस समय तक परदा भी नहीं उठा था। सिद्धार्थ मृत्यु से मुक्ति को उसकी सम्पूर्णता में प्राप्त करना चाहते थे। इसे हासिल करने के लिए वे स्वर्गीय वैभव तथा ऐश्वर्यशाली जीवन को भी ठुकरा चुके थे। एक शान्त मस्तिष्क को हासिल करने के लिए राजकुमार सिद्धार्थ को छह इन्द्रियों- नेत्र, कान, जिह्वा, शरीर और स्वयं मस्तिष्क को नियंत्रित करना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप इन छह इन्द्रियों के माध्यम से आने वाली समस्त संवेदनाएँ रुक गयीं। यद्यपि उस समय छह इन्द्रियों द्वारा क...

मोहल्ल्ला अस्सी पर विवाद बेवजह

मोहल्ला अस्सी की रिलीज़ पर दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट द्वारा अगले आदेशों तक रोक लगा दिए जाने से एक बार पुनः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के आहत होने का सवाल सतह पर आ गया है. अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब फ्रेंच कार्टून पत्रिका पर आतंकवादियों ने हमला बोल दिया था और धार्मिक भावनाओं के आहत होने के नाम पर अनेक लोगों को मौत की नींद सुला दिया गया था. सलमान रश्दी, तसलीमा नसरीन, एम् ऍफ़ हुसैन, नरेंद्र मोहन आदि अनेक लेखक साहित्यकार फ़िल्मकार धर्म के आखेट होकर अपनी कृतियों पर पाबंदी लगवाने या फतवे जारी होने पर छुपकर रहने या देश निकाला का दंश सहने को विवश हुए हैं.      आश्चर्य की बात है कि इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी यह धार्मिक भावनाओं के आहत होने के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने का यह कार्य बदस्तूर जारी है. चाहे ईश निंदा और काफिरों के विरोध के नाम पर इस्लामिक देशों में हो रहा आइसिस का खूनी खेल हो या एक फिल्म के छोटे से दृश्य में कही गयी छोटी सी बात का विरोध हो, इनमें भला अंतर क्या रह जाता है ? अंतर है तो इतना कि वहां यह खेल खूनी है तो यहाँ यह मानस...