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Showing posts from October, 2015

ये तो हमारी संस्कृति नहीं !!!!

इस देश में शास्त्रार्थ की अत्यंत स्वस्थ परम्परा रही है। विभिन्न सम्प्रदायों के बीच स्वस्थ बहस से भारतीय मनीषा ने अपने ज्ञान को विस्तृत किया है। परस्पर विरोधी अवधारणाएं एक ही समय में न सिर्फ रहीं बल्कि उन्होंने एक दूसरे को प्रभावित करने का काम भी किया। दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति की  आराधना पद्धति आर्य परम्परा में ऐसी घुल मिल गयी कि कोई यह कह ही नहीं सकता कि यह पद्धति हमारे क्षेत्र की नहीं है। क्या आज कोई विश्वास के साथ बता सकता है कि हममें से आर्य, शक, हूण, यक्ष, नाग, कोल, किरात जाति का कौन है। ये सब हममें घुलमिल गईं। हमने वेद को स्वीकारा तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप रचे उपनिषद को भी स्वीकारा। तुलसी हमारे हैं तो कबीर भी हमारे हैं, सूफी भी हमारे अपने हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, मुसलमान, यहूदी, पारसी, ईसाई सबको हमने उनके आराधना पद्धति और धर्म के साथ अपनाया लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद से हमारी सहिष्णुता में कमी आयी, जिसके परिणामस्वरूप देश के कई टुकड़े हुए और बर्मा, अफगानिस्तान, भूटान, नेपाल तथा तिब्बत को चुपचाप हमसे अलग करने के बाद जाते-जाते वे पाकिस्तान बनाकर कभी न भरने वाला ज़ख्...

कलिकथा वाया बाइपास के बहाने समाज की पड़ताल

यह लेख अलका सरावगी के उपन्यास कलि कथा वाया बायपास उपन्यास की संकरी कलकतिया गलियों से गुजरकर भारतीय समाज के परिवर्तनों की आहट को महसूसता है. जिस दौर में ‘कलि कथा वाया बाइपास’ लिखा गया, वह दौर भूमंडलीकरण की आहट के कोलाहल में डूबा हुआ था. उस दौर में हर बुद्धिजीवी अपने-अपने ढंग से इसको परिभाषित कर रहा था और इसके सामाजिक प्रभावों की पड़ताल कर रहा था. यह उपन्यास भी भूमंडलीकृत समाज में सामाजिक व्यवस्था से अजनबीपन की हद तक कटे हुए किशोर बाबू की कहानी है, जिनके दिल की बाइपास सर्जरी क्या हुई, उनका चीज़ों को देखने का नजरिया ही बदल गया. जो किशोर बाबू मध्यमवर्गीय मानसिकता के अनुरूप अनेक प्रकरणों को बाइपास कर जाने की मानसिकता रखते थे, दिल की सर्जरी के बाद बार-बार उन गलियों में चले जाते हैं, जिनसे वे कभी गुजरकर आये थे. उनकी यह यात्रा उन्हें अपने पुरखों के जीवन से 1 जनवरी सन 2000 तक की यात्रा पर ले जाती है, जिसमें प्रसंगानुसार इतिहास की घटनाएं भी चहलकदमी करती रहती हैं. यह कथा वस्तुतः डेढ़ सौ साल के रूढ़िवादी मारवाड़ी समाज की कथा ही नहीं है, वरन इसमें भारतीय समाज की विसंगतियों की जड़ें देखी जा सकती हैं. ...

पुरुष भावनाओं की अभिव्यक्ति है यायावर

आजकल साहित्य में स्त्री विमर्श की बड़ी धूम है. स्त्रियों के अधिकारों, उनकी व्यथाओं एवं पीड़ा के आख्यानों की चर्चा से साहित्य गुंजायमान है. परन्तु पुरुष की भावनाएँ, उसकी अपेक्षाएँ तथा ज़रूरतें साहित्य से प्रायः बहिष्कृत हैं. इसका कारण यह दिया जाता है कि सदियों से पुरुष ने स्त्रियों पर अत्याचार किए हैं और स्त्री ने उन अत्याचारों को मौन होकर सहा है, इसलिए स्त्री की पीड़ा का बखान ज़रूरी है. यह बात सच भी है लेकिन क्या इसी आधार पर पुरुष की वेदना के आख्यानों को साहित्य से देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए और उसकी आवाज़ का गला घोंट दिया जाना चाहिए? मेरे विचार से ऐसा करना समस्या को एकांगी दृष्टिकोण से देखना होगा.       हिन्दी साहित्य में बहुत कम ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने पुरुषों की पीड़ा पर अपनी कलम चलाई है. आचार्य निशांतकेतु के बाद यदि किसी लेखक का नाम जेहन में आता है तो वह हैं चन्द्र विजय प्रसाद ‘चन्दन’ जी. चन्दन जी इससे पहले ‘लौट आओ सिम्मी’ उपन्यास के माध्यम से एक किशोर प्रेमी की कोमल अनुभूतियों एवं निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति कर चुके हैं. समीक्ष्य ‘यायावर’ लघु उपन्यास के माध्...