पुरुष भावनाओं की अभिव्यक्ति है यायावर


आजकल साहित्य में स्त्री विमर्श की बड़ी धूम है. स्त्रियों के अधिकारों, उनकी व्यथाओं एवं पीड़ा के आख्यानों की चर्चा से साहित्य गुंजायमान है. परन्तु पुरुष की भावनाएँ, उसकी अपेक्षाएँ तथा ज़रूरतें साहित्य से प्रायः बहिष्कृत हैं. इसका कारण यह दिया जाता है कि सदियों से पुरुष ने स्त्रियों पर अत्याचार किए हैं और स्त्री ने उन अत्याचारों को मौन होकर सहा है, इसलिए स्त्री की पीड़ा का बखान ज़रूरी है. यह बात सच भी है लेकिन क्या इसी आधार पर पुरुष की वेदना के आख्यानों को साहित्य से देशनिकाला दे दिया जाना चाहिए और उसकी आवाज़ का गला घोंट दिया जाना चाहिए? मेरे विचार से ऐसा करना समस्या को एकांगी दृष्टिकोण से देखना होगा.
      हिन्दी साहित्य में बहुत कम ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने पुरुषों की पीड़ा पर अपनी कलम चलाई है. आचार्य निशांतकेतु के बाद यदि किसी लेखक का नाम जेहन में आता है तो वह हैं चन्द्र विजय प्रसाद ‘चन्दन’ जी. चन्दन जी इससे पहले ‘लौट आओ सिम्मी’ उपन्यास के माध्यम से एक किशोर प्रेमी की कोमल अनुभूतियों एवं निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति कर चुके हैं. समीक्ष्य ‘यायावर’ लघु उपन्यास के माध्यम से उन्होंने एक भोले-भाले व्यक्ति के जीवन में चार बार क्रमशः रश्मि, ज्योति, तृप्ति और रीनू नामक स्त्रियों के आने और हर बार उनसे ठगे जाने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है. रश्मि जब उसके जीवन में आती है तो उसे महसूस होता है कि अब उसका जीवन प्रेम की ‘रश्मि’ से प्रकाशित हो जाएगा. वह उससे कभी साथ न छोड़ने का वादा भी करती है लेकिन एक धनाढ्य व्यक्ति को पाकर वह अपने जीवन की तरुणाई के इस पहले प्यार को भूल जाती है और शादी हो जाने के बाद भी नायक से अपने स्वार्थों की पूर्ति करती रहती है. ज्योति भी उसके जीवन में ज्योति के स्थान पर अँधेरा घोल देती है. तृप्ति से भी उसे क्षणिक तृप्ति ही होती है परंतु जिस समर्पण की उसे चाहत थी, वह उसे नहीं मिल पाती. अंतिम स्त्री रीनू अर्थात रेणु या धूल स्वयं धूल की भांति उपेक्षित होने के बावजूद नायक के विवाह प्रस्ताव को धूल में उड़ा देती है. फलतः नायक ‘चन्द्र’ जो चन्द्रमा की भांति प्रेमांकुर की आस में धीरे-धीरे अपने व्यक्तित्व में प्रेम की मात्रा को बढ़ाता जाता है, अंत में वह अमावस्या के ‘यायावर’ चन्द्र की भांति स्वयं को नष्ट और विलीन पाता है. इस दृष्टि से पात्रों के नामकरण भी सायास और पात्रों की मनःस्थिति को उभारने में समर्थ सिद्ध होते हैं.
      इस उपन्यास की एक खूबी यह है कि इसमें भावनाओं का आवेग अपने पूर्ण शिखर पर पहुंचकर पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित करने लगता है. एक उदाहरण दृष्ट्रव्य है-
नदी की बहती जलधार जैसे वापस लौटकर अपने उद्गमस्थल की ओर नहीं आती, वैसे ही हृदय के भाव अगर अपने पाश में ले लिए हों तो वापस लौटकर कहीं और नहीं जा सकते....निरंतर प्रवाहमान संवेदन मन के भाव से तुम जुड़ गईं तब मेरे लिए सम्भव नहीं है कि मैं तुम्हें स्वयं से अलग महसूस कर सकूँ.... तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम स्वयं भले बुरे का विवेचन करो.......तुम्हारी इस सोच पर मेरा कोई अधिकार भी नहीं है किन्तु यह याद रखना तृप्ति ! प्रेम किसी प्रत्याशा या फिर विवेचना पर निर्भर नहीं करता......भविष्य का आकलन कर मैं जीवन गुजारता तो शायद मैं चन्द्र नहीं होता बल्कि संवेदना भावना का व्यापारी होता....मैंने  तुम्हें अपने प्रेम पाश से बांध लिया है ...आजन्म तुम इससे मुक्त होना चाहकर भी मुक्त नहीं हो सकतीं.
उपर्युक्त पंक्तियों से धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की भी सुगंध मिल रही है. चन्दन जी की यही खूबी है कि वे अपने पात्र के साथ इतनी गहराई से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं कि पात्र के साथ एकाकार हो जाते हैं और यह साधारणीकरण कई बार ऐसा आभास देने लगता है कि यह कोई कहानी न होकर एक सच्ची आपबीती हो.
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उपन्यासकार का नाम चन्द्र है और इस उपन्यास के नायक का नाम भी चन्द्र ही है; इससे ऐसा आभास होता है कि यह एक लघु उपन्यास न होकर लेखक के स्वयं के जीवन में आये झंझावातों की बेबाक बयानी है. इस दृष्टि से इसे पढ़ने पर हम नायक के प्रति कुछ अधिक ही भावुकता की अनुभूति करने लगते हैं.
एक पुरुष की भावनाओं में भी मसृणता हो सकती है और वह भी निःस्वार्थ प्रेम करने के बावजूद प्रेम में निष्फल होकर अपनी कारुणिक भावनाएँ प्रकट कर सकता है, यह बात हम स्त्री सशक्तिकरण की आंधी में विस्मृत करने लगे थे. बेवफाई के पश्चात् एक पुरुष मन की ऐसी ही भावनाओं का अंकन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-
उफ़, रोने को दिल करता किन्तु न जाने आंसुओं ने ऐसी बगावत कर दी थी कि बूँद बन निकल ही नहीं रहे थे पुतलियों की परिधि को छोड़कर....हालाँकि दिल में उठते दर्द के गुबार से चन्द्र का मन अशांत था....समझ में नहीं आता कैसे इस दर्द को अपने अंदर जप्त कर पाएगा.. कभी लगता आखिर उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है....क्या वह इस काबिल ही नहीं कि अपनी नई दुनिया बसा सके...तो कभी लगता उसके अंदर की संवेदना ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है जो न उसे सुकून से जीने दे रही है और ना ही मरने....क्या करेगा वह?
प्रेम की वियोगात्मक अनुभूतियों का इस उपन्यास में प्राधान्य है; सांयोगिक प्रणय के चित्र अपेक्षाकृत अत्यल्प हैं, लेकिन ऐसे चित्रों के अंकन में भी लेखक ने अपनी पूर्ण प्रतिभा उड़ेलकर रख दी है. तृप्ति के साथ नायक के प्रणयांकन में ऐसे ही दृश्य अंकित हुए हैं.
अंततः कहा जा सकता है कि उपन्यासकार ने अपने उपन्यासों के माध्यम से समकालीन उपन्यास जगत में सूखती जा रही प्रेम बेल को सींचकर पुनः पुष्पित पल्लवित होने का अवसर दिया है. यह उपन्यास प्रेम के सुष्ठु अंकन की चाह रखने वाले उन पाठकों को विशेष पसंद आएगा जो गुनाहों का देवता शैली के उपन्यास पढ़ना पसंद करते हैं. चन्दन जी को एक उत्कृष्ट उपन्यास पाठकों के समक्ष पेश करने के लिए बधाई. भविष्य में भी वे अपनी समर्थ कलम से ऐसे ही महत्त्वपूर्ण लेखन करते रहेंगे, ऐसी उनसे अपेक्षा रहेगी.
                                         

                                                      डॉ- पुनीत बिसारिया
                                                                                                                                                                                           

Comments

  1. बहुत सुन्दर
    बहुत सुन्दर प्रकाशित किया है प्रेम की जीवन शैली को
    श्री चंद्र विजय प्रसाद चन्दन को मेरा सादर नमन

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद बल्देव सिंह जी.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

'कलाम को सलाम' कविता संग्रह में मेरे द्वारा लिखित दो शब्द

कौन कहे? यह प्रेम हृदय की बहुत बड़ी उलझन है

स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ