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Showing posts from May, 2015

श्रीकांत वर्मा की पुण्यतिथि पर

नई कविता आन्दोलन के प्रमुख हस्ताक्षर श्रीकांत वर्मा की आज 19 वीं पुण्यतिथि है. श्रीकांत वर्मा की कविताएँ साहित्य में लघु मानव की प्रतिष्ठा के साथ-साथ ऐतिहासिक पात्रों के नवीन परिवेश में अंकन का जीवंत दस्तावेज हैं. 18 नवम्बर सन 1931 को बिलासपुर में जन्मे वर्मा जी दिनमान समेत अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक रहे. आपने कांग्रेस पार्टी में रहकर कई वर्षों 1967 से 1986 तक राजनीति में भी हाथ आजमाया. गरीबी हटाओ नारा उन्हीं की कलम से निकला था. सन 1976 में काँग्रेस से वे राज्य सभा के सदस्य बने। और सत्तरवें दशक के उत्तरार्ध से ८०वें दशक के पूर्वार्ध तक उन्होंने कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। सन 1980 में वे इंदिरा गांधी के राष्ट्रीय चुनाव अभियान के प्रमुख प्रबंधक रहे और 984 में राजीव गांधी के परामर्शदाता तथा राजनीतिक विश्लेषक के रूप में कार्य करते रहे। राजीव गाँधी के शासन काल में उन्हें सन 1985 में महासचिव के पद से हटा दिया गया। वे पचास के दशक में उभरने वाले नई कविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में से थे। उन्हें सन 1973 में मध्यप्रदेश सरकार का 'तुलसी पुरस्कार'; 1980 म...

बीबीसी के 75 वर्ष

बीबीसी के 75 वर्ष जब से होश संभाला, पापा को ट्रांज़िस्टर हाथ में लिए बीबीसी सुनते देखा। अक्सर शाम को एक घंटे का बुलेटिन वे अवश्य सुनते थे।बच्चा मन सोचता था, ये कानों के पास ट्रांज़िस्टर को चिपकाए क्या सुनते रहते हैं। हम तीन बहन दो भाई कभी शोरगुल करते तो वे डांट डपटकर चुप करा देते। कहते, बीबीसी लन्दन सुन रहा हूँ, डिस्टर्ब मत करो। हम बच्चे मन मसोसकर चुप बैठ जाते और मैं अक्सर सोचता, बीबीसी में ऐसा क्या है, जिसके लिए हम खुलकर खेलकूद भी नहीसकते। फिर पापा ने जब सुना कि तत्कालीन प्रधामन्त्री इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षा गार्डों ने हत्या कर दी है तो वे फौरन ट्रांज़िस्टर की तरफ भागे और बीबीसी सुनकर इसकी पुष्टि की। जनता पार्टी सरकार का पतन, 1983 क्रिकेट विश्वकप की जीत, भोपाल गैस कांड आदि सूचनाएँ उन्होंने बीबीसी सुनकर ही दीं। जब खुद आठवीं  में आया तो पहली बार खुद ट्रांज़िस्टर उठाकर सुना और रीगन, गोर्बाचेव, फिदेल कास्त्रो, शीत युद्ध, वियतनाम अमेरिका संघर्ष, ईरान-इराक युद्ध आदि तत्कालीन घटनाओं को समझने और उनके विश्लेषण करने की दृष्टि विकसित करने में शनैः शनैः मुझे सफलता मिली। बीबीसी ने दुनिया...

रंगरसिया :एक शानदार फ़िल्म जिसे हमने भुला दिया

कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें देखने के बाद उनका प्रभाव कई दिनों तक मन मस्तिष्क में बना रहता है। मेरे लिए केतन मेहता की रंगरसिया (हिंदी नामकरण) या Colors of passion (English Version) एक ऐसी ही अद्भुत फ़िल्म है। मेरे मतानुसार मराठी उपन्यासकार रणजीत देसाई के जीवनीपरक उपन्यास राजा रवि वर्मा पर आधारित यह फ़िल्म वास्तव में इक्कीसवीं शती की सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म है। पता नहीं क्यों तथाकथित फ़िल्म समीक्षकों को इस फ़िल्म में खूबियां क्यों नज़र नहीं आईं! केवल सुभाष के झा ने उस समय इसे साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहा। यह फ़िल्म परदे पर उतारी गई एक बेशकीमती कलाकृति है। भारत में इस फ़िल्म को नवम्बर सन 2008 में ही प्रदर्शित होना था किन्तु इस फ़िल्म के कुछ अंतरंग दृश्यों पर उठे विवादों के कारण यह फ़िल्म 7 नवम्बर सन 2014 को प्रदर्शित हो सकी। आश्चर्य की बात है कि रागिनी एमएमएस और हेट स्टोरी जैसी बकवास फिल्मों को मंज़ूरी दे देने वाला सेंसर बोर्ड एक कलात्मक पेंटिंगनुमा फ़िल्म को स्वीकृति देने में पूरे छह साल लगा देता है। सन 2008 में लन्दन फ़िल्म फेस्टिवल में इसकी काफी सराहना हुई थी। राजा रवि वर्मा ...

नयी सदी का हिंदी सिनेमा

बीते पन्द्रह बरस का सिनेमा अपनी कुछ ज़रूरी और गैर ज़रूरी बातों के लिए इतिहास में याद किया जाएगा। इस दौर में स्त्री चीज़ से तंदूरी मुर्गी, जलेबीबाई, मुन्नी और भी न जाने क्या क्या बनी। लेकिन इस डेढ़ दशक के दौर को याद किया जाएगा लगान (2001), ब्लैक (2005), लगे रहो मुन्ना भाई (2006), चक दे इंडिया(2007), तारे ज़मीन पर (2007), अ वेडनेसडे (2008), थ्री इडियट्स (2009), पा (2010), पान सिंह तोमर (2012), गैंग ऑफ़ वासेपुर (2012), लंचबॉक्स (2014), रंगरसिया(2014) आदि के लिए। इनके अलावा ब्लैक फ्राइडे, क्या दिल्ली क्या लाहौर, परिणीता, गांधी माय फादर, पिंजर, गंगाजल, इक़बाल, फेरारी की सवारी ओमकारा आदि भी इस अवधि की उपलब्धियां हैं। हिंदी सिनेमा की समस्या यह है कि जो सौ करोड़ी फ़िल्में हैं उनमें से प्रायः 90 प्रतिशत बकवास और दोहराव का शिकार हैं। जो अच्छी और नए विषय की फ़िल्में हैं, उनका बॉक्स ऑफिस हश्र प्रायः अच्छा नहीं होता। शायद भारत में अभी दर्शकों का टेस्ट डेवलप नहीं हो सका है, तभी तो इन फिल्मों में दरवाजा खुला रखकर बुलाने वाले आमन्त्रण देते गाने सफल हो जाते हैं और अच्छे गाने कहीं खो जाते हैं। इस पर भी...

सुनिए स्मृति ईरानी जी

मानव संसाधन विकास मंत्री महोदया को उच्च शिक्षा हेतु कुछ सुझाव 1 नए विश्वविद्यालय महानगरों की जगह ग्रामीण अथवा असेवित स्थानों पर ही खोले जाएं। 2 देश भर में खाली पड़े शिक्षकों के पदों को एक साल के भीतर भरना सुनिश्चित किया जाए। 3 शिक्षकों को उनकी विशेषज्ञता के अनुरूप अपने विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालयों में अध्यापन व्याख्यान हेतु भेजा जाए। 4 महाविद्यालयों के शिक्षकों को भी विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के समतुल्य समझा जाए और उन्हें भी उनकी योग्यता के अनुरूप कुलपति तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाए एवं विभिन्न अकादमिक तथा प्रशासनिक कार्यों हेतु उन्हें भी आमंत्रित किया जाए। 5 सम्पूर्ण राष्ट्र के शिक्षकों की सेवा शर्तें एवं प्राप्त सुविधाओं में समरूपता हो। 6 अकादमिक दृष्टि से श्रेष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों के लिए प्रोत्साहन की व्यवस्था हो। 7 सम्पूर्ण देश के प्राध्यापकों हेतु आई ए एस की तर्ज पर इंडियन प्रोफ़ेसर सर्विस कैडर बनाया जाए। इनका अखिल भारतीय स्थानांतरण हो तथा विश्वविद्यालयों से महाविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से विश्वविद्यालयों में पोर्टेबिलिटी हो। 8 लगा...

वैदिक काल में भी उपेक्षित थी स्त्री

यह लेख मेरी प्रकाशित हो चुकी पुस्तक "वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री" का अंश है. कृपया पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया से उपकृत करें. वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विष में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं,‘‘उनके अनुसार स्त्री का मन चंचल होता है, उसे नियंत्रण में रखना असम्भव सा है।1 उसकी बुद्धि भी छोटी होती है।2 वह अपवित्र होती है और उसका हृदय भेड़िये सा होता है।3 यदि विवाह के पश्चात् वधू के घर अपने पर परिवार के किसी सदस्य को, यहां तक कि मवेशियों को भी कुछ हो जाता था, तो उसका दोष आज की भांति ही नववधू के सिर मढ़ दिया जाता था। इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग4 अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। इन्द्र के आने पर इन्दाणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं...

सेक्युलरिज्म और समाजवाद पर बहस

भारतीय संविधान की  प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्प्रुभतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य है। सन 1976 में तत्कालीन इन्दिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल के बाद आम जनता को लुभाने के लिए समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर ये दो शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिए थे. गणतंत्र दिवस की 65 वीं जयंती पर भारत सरकार ने  26 जनवरी सन 2015 को जो विज्ञापन जारी किया, उसमें से समाजवादी और सेक्युलर शब्द हटा दिए. इस पर हो रहे विवाद के बीच सरकार अब चर्चा चाहती है . मेरा मानना है कि जिन सन्दर्भों में समाजवाद और सेक्युलर की अवधारणा संविधान की प्रस्तावना में जोड़ी गई थी, वे सन्दर्भ ही अब अप्रासंगिक हो गए हैं. अब न तो समाजवाद अपने जनवादी चेहरे के साथ उपस्थित है और न ही सेक्युलर शब्द की सामाजिक राजनैतिक अर्थों में ज़रूरत है. कुछ मुलायमियत से युक्त राहुलपंथी नेता ही अपने स्वार्थों के लिए इन शब्दों की अस्मिता से लगातार खिलवाड़ कर रहे हैं. जिस भारतीय लोकतंत्र में वोट हासिल करने के लिए नेतागण स्वयंभू बाबाओं से लेकर शाही इमामों और हिन्दू-मुस्लिम, सिख धर्मगुरुओं से अपनी पार्टी के पक्ष...

इक्कीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म है रंगरसिया

कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें देखने के बाद उनका प्रभाव कई दिनों तक मन मस्तिष्क में बना रहता है। मेरे लिए केतन मेहता की रंगरसिया (हिंदी नामकरण) या Colors of passion (English Version) एक ऐसी ही अद्भुत फ़िल्म है। मेरे मतानुसार मराठी उपन्यासकार रणजीत देसाई के जीवनीपरक उपन्यास राजा रवि वर्मा पर आधारित यह फ़िल्म वास्तव में इक्कीसवीं शती की सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म है। पता नहीं क्यों तथाकथित फ़िल्म समीक्षकों को इस फ़िल्म में खूबियां क्यों नज़र नहीं आईं! केवल सुभाष के झा ने उस समय इसे  साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहा। यह फ़िल्म परदे पर उतारी गई एक बेशकीमती कलाकृति है। भारत में इस फ़िल्म को नवम्बर सन 2008 में ही प्रदर्शित होना था किन्तु इस फ़िल्म के कुछ अंतरंग दृश्यों पर उठे विवादों के कारण यह फ़िल्म 7 नवम्बर सन 2014 को प्रदर्शित हो सकी। आश्चर्य की बात है कि रागिनी एमएमएस और हेट स्टोरी जैसी बकवास फिल्मों को मंज़ूरी दे देने वाला सेंसर बोर्ड एक कलात्मक पेंटिंगनुमा फ़िल्म को स्वीकृति देने में पूरे छह साल लगा देता है। सन 2008 में लन्दन फ़िल्म फेस्टिवल में इसकी काफी सराहना हुई थी। राजा रवि वर्मा के किरदार ...

हिन्दू धर्म और विवाह

हिन्दू धर्म में विवाह एक बहुत ही पवित्र संस्कार माना गया है लेकिन बीते कुछ सालों में इस सामाजिक व्यवस्था में दिनों दिन गिरावट आती जा रही है। भव्यता का भोंडा प्रदर्शन, लड़की पक्ष पर खर्चे का बेतहाशा बोझ और लड़के पक्ष का मिथ्याभिमान इस पर भारी पड़ने लगा है। लड़के की शादी में जाने वाला हरेक बाराती अपने आपको किसी शहंशाह से कम नहीं समझता और येन केन प्रकारेण लड़की पक्ष के लोगों का अपमान और तिरस्कार करके आनंदित होता है मानो लड़की पक्ष का होना दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह हो। लड़के का पिता या भ ाई ही नहीं बल्कि उसकी माँ और बहनें भी ऐसे अकड़कर चलते हैं मानो लड़का पक्ष का होना कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हो। सवर्णों और पिछड़े वर्ग के हिन्दू समाज में यह दुर्गुण तेज़ी से पैर पसार रहा है। इसके अलावा हथियारों का भोंडा प्रदर्शन, तड़क भड़क, बेतहाशा सजावट में बिजली की गैर ज़रूरी खपत, अनगिनत भोज्य पदार्थ और नोटों की बारिश से इसे तथाकथित आलीशान बनाया जाता है। इसके बाद भी लड़की का पिता हाथ जोड़े खड़ा रहता है और बारातियों पर चढ़े अंगूर की बेटी के खुमार का खामियाजा भुगतता रहता है। क्या कोई हिन्दू धर्मगुरू इन दुर्गुणों को दूर करने की भ...

किसानों की आत्महत्या

किसानों की आत्महत्या की खबरें सुन पढ़कर अनायास ही प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात याद आ गई और इस बात पर गहरा क्षोभ भी हुआ कि इस कहानी को लिखे हुए लगभग अस्सी बरस बीत जाने के बावजूद हलकू की तरह आज का किसान भी या तो मजदूरी को किसानी से बेहतर बता रहा है या फिर मौत को गले लगा रहा है। इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक बाद भी क्या किसानी रामभरोसे ही रहेगी ? कोई वैज्ञानिक ऐसी कृत्रिम छत क्यों नहीं ईजाद करता जो किसानों को अनावश्यक अतिवृष्टि से निजात दिला सके। ये ग्राउंड वाटर रिचार्जिंग में भी उप योगी होगा। किसान को फसल पर शत प्रतिशत बीमा करने की शर्त भारत आने वाली बहुराष्ट्रीय बीमा कम्पनियों के आगे क्यों नहीं रखी जाती। बम्पर फसल होने पर गाँव में ही विकसित कुटीर उद्योगों के द्वारा उनकी फसल बेचने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती? फल, सब्ज़ी, दूध, अनाज आदि के भण्डारण और शीतलन एवम् परिवहन के लिए पीपीपी मॉडल पर काम क्यों नहीं किया जाता और सबसे ज़रूरी बात यह कि किसान की उपज खेत में जाकर ही खरीदने की व्यवस्था और बिचौलियों से मुक्ति की कोई ठोस व्यवस्था क्यों नहीं अमल में लाई जाती? आज के किसान को कर्ज से ज़्यादा ज़रूरी ...

नेट न्यूट्रलिटी आज की ज़रूरत है।

आपने सुना ही होगा कि कुछ साल पहले अमरीकी सरकार ने एकाधिकारवादी माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी पर भारी जुर्माना लगाया था क्योंकि इस कम्पनी ने अपने सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के दौरान से व्यापार जगत की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं होने दी और सारी दुनिया को इस बात के लिए मजबूर किया था कि वह केवल उन्हीं के बनाए और विकसित किये गए सॉफ्टवेयर खरीदे. इससे लिनक्स जैसी कम्पनियों को भारी घाटा हो रहा था और दुनिया को भी कोई अन्य विकल्प मौजूद न होने के कारण माइक्रोसॉफ्ट के ही उत्पाद उनकी मनमानी कीमतों पर खरीदने को विवश होना पड़ रहा था. आज से सौ डेढ़ सौ बरस दूर का एक दूसरा उदाहरण आपके सामने रखते हैं. उस समय भारत में चाय की शुरूआत लोगों को मुफ्त चाय देने से हुई और आज भारत का शायद ही कोई ऐसा नागरिक होगा, जिसकी सुबह-सुबह की चेतना चाय पिए बगैर जाग्रत हो जाती हो. अब नेट न्यूट्रलिटी या नेट निरपेक्षता से जुड़े विवाद पर आते हैं. विवाद की शुरूआत एयरटेल, रिलायंस और फ़ेसबुक के कुछ विशेष किस्म के प्लान आने से हुई. एयरटेल ने एयरटेल जीरो नाम से एक विशेष सेवा शुरू की है जिसके तहत एयरटेल के उपभोक्ता को कुछ विशेष कम्पनियों की इन्टरनेट सेव...