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Showing posts from August, 2016

स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ

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स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर पेश हैं हिन्दी सिनेमा के ऐसे अमर गीत, जिनसे हम सब किसी न किसी क्षण पर आंदोलित होते रहे हैं. स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को नमन करते हुए पेश हैं ये गीत- 1- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है 2- आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की 3- मेरे देश की धरती 4-हर करम अपना करेंगे 5- नन्हा मुन्ना राही हूँ 6- छोड़ो कल की बातें 7- इन्साफ की डगर पर 8- दे दी हमे आजादी बिना 9- ऐ वतन ऐ वतन 10- मेरा रंग दे बसंती चोला 11- आरम्भ है प्रचंड बोल 12- नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मैं क्या है 13- भारत हमको जान से प्यारा है 14- अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों 15- है प्रीत जहाँ की रीत सदा 16- जिस देश में गंगा बहती है 17- कदम कदम बढाये जा 18- जहाँ डाल डाल पर सोने 19- ऐ मेरे प्यारे वतन 20- जय जननी ने भारत माँ 21- आई लव माय इंडिया 22- ऐसा देश है मेरा 23- अपनी आजादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नही 24- हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के 25- सरफरोशी की तमन्ना 26- कन्धों से मिलते है कंधे 27- यह देश है वीर जवानों का 28- मेरे दुश्मन मेरे भाई 29- यह जो देश है मेरा 30- बढ...

बकवास फिल्म है मोहेन जोदारो

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र कड़ी हैं, जिनके सपाट अभिनय ने फिल्म को भारी नुकसान पहुँचाया है. ऋतिक रोशन का दमदार अभिनय इस फिल्म को उठाने का प्रयास करता है लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इस फिल्म के कुछ सकारात्मक पक्ष भी हैं, जैसे सिन्धु घाटी की सभ्यता को उसके उत्खनित स्वरुप में दिखाना और वस्त्र विन्यास तथा सामाजिक जीवन की परख करना, जिसमें आशुतोष की प्रतिभा का चरम दीखता है, लेकिन गीत-संगीत, संवाद और 'कदाचित' सांस्कृतिक पक्ष के अंकन की दुर्बलता ने एक बेहद शानदार विषय को पूरी तरह से धर्मेन्द्र की धरमवीर मार्का या फिर अमरीशपुरी की टिपिकल खलनायकत्व वाली फिल्म में बदल डाला है. अगर आशुतोष सही पात्र चयन और पटकथा एवंगीत-संगीत पर ध्यान दे देते तथा बड़े नामों का मोह छोडकर किसी अन्य गीतकार और संगीतकार को अवसर देते तो शायद बेहतर नतीजे आ सकते थे. मैं व्यक्तिगत तौर पर इस फिल्म से काफी निराश हुआ हूँ. मेरी ओर से इस फिल्म को 5 में सिर्फ दो स्टार.

हिन्दी सिनेमा में चित्रित नए सरोकार

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-  पुनीत बिसारिया   नयी शताब्दी का सिनेमा अपनी नवोन्मेषी दृष्टि, मौलिक संकल्पना और कुछ नये सवाल लेकर हमारे बीच उपस्थित है. नयी शताब्दी ने सिनेमा को नयी ऊर्जा, नये विषय, नये संस्कार दिये हैं. नयी सहस्राब्दि से पूर्व तक हिन्दी सिनेमा कुछ ख़ास किस्म के फॉर्मूलों तक केन्द्रित रहा करता था और वे फ़ॉर्मूले ही फिल्मों की सफलता की गारंटी हुआ करते थे, जैसे- प्रेम या रोमांस, जो कमोबेश आज भी किसी फिल्म को सफल बनाने की क्षमता रखता है अथवा नायक-खलनायक भिड़ंत या फिर प्रेम त्रिकोण या फिर भाइयों का आपसी प्यार, हिन्दू-मुस्लिम दोस्ती खोया-पाया या धार्मिक अथवा ऐतिहासिक विषय. इनसे हटकर जो विषय लिए जाते थे,  उन विषयों पर फ़िल्में बनाना जोखिम का काम माना जाता था और प्रायः फ़िल्मकार ऐसे जोखिम लेने से बचते थे. जो फिल्मकार ऐसे जोखिम ले लिया करते थे, उनकी फिल्मों को समान्तर सिनेमा या कलात्मक सिनेमा के सांचे में रखकर कुछ चुनिन्दा दर्शकों के लिए देखने को सीमित कर दिया जाता था. इसका नतीजा यह होता था कि बॉक्स ऑफिस या कमाई की दृष्टि से ये फ़िल्में ज्यादातर घाटे का सौदा साबित होती थीं और इन्हें आ...