हिन्दी का भविष्य स्वर्णिम है

 हिन्दी का संघर्ष नामक एक पुस्तक के लिए डॉ हेमा जोशी जी ने मेरा साक्षात्कार लिया था। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार की अविकल प्रस्तुति ~

प्रश्न 1) आज हिंदी क्षेत्र का जनमानस हिंदी को लेकर कितना उद्वेलित है? उसे राष्ट्रीय संदर्भों में हिंदी की किस भूमिका की अपेक्षा है?

उत्तर 1) हिंदी पट्टी का जनमानस   प्रायः छोटे-छोटे गांवों, कस्बों और शहरों में रहता है, वह महानगरों की चाकचिक्य से दूर रहकर हिंदी पढ़ता, लिखता और बोलता है और दुखद सच यह है कि अभी तक भाषाई दृष्टि से शासकीय नीति निर्धारण में उसकी भूमिका नगण्यप्राय थी और तथाकथित अंग्रेज़ीपरस्त अंग्रेजदां सिविल सेवक मनमानी नीतियां बनाकर हिंदी और भारतीय भाषाओं को हाशिए पर रखने का कुचक्र रच रहे थे। सौभाग्य से आज देश को नरेन्द्र मोदी के रूप में एक नितांत हिंदीप्रेमी प्रधानमंत्री एवं शिक्षा मंत्री के रूप में कवि ह्रदय हिंदीनिष्ठ डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों को पर्याप्त महत्त्व देते हुए इसके 22वें अनुच्छेद को भाषाई अस्मिता के लिए समर्पित किया है। इससे आशा बंधी है कि अब शीघ्र ही हिंदी विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों में अपना चिर-प्रतीक्षित स्थान प्राप्त कर सकेगी। आईआईटी और एनआईटी की प्रवेश परीक्षाओं में हिंदी को स्थान देना इसकी पहली कड़ी है। जहां तक हिंदी क्षेत्र के जनमानस के उद्वेलन के परिमाण का प्रश्न है तो अभी तक वह इस मामले में अधिक सक्रिय नहीं रहा है। अब उससे अपेक्षाकृत अधिक गतिशील होने की अपेक्षा है। उसे राष्ट्रीय संदर्भों में हिंदी की भाषाई अस्मिता के लिए एकजुट होना चाहिए और सभी ऑफलाइन एवं ऑनलाइन मंचों के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसके प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए तत्पर होना चाहिए। शिक्षित जनमानस का यह कर्त्तव्य है कि वह गौरांग प्रभुओं के सेवकों के पाश्चात्य संस्कृति में डूबे हुए अंग्रेज़ी प्रेम और हिंदी को तोड़कर अपनी बोलियों को भाषा बनाकर मलाई खाने की कोशिश करने वालों के ढोंग को अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से शून्य कर दे।

प्रश्न 2) देश भर में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। इसका हिंदी की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा है?

उत्तर 2) देश भर में तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों ने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं का समान रूप से नुकसान किया है। इन स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी न तो हिंदी जान पाते हैं और न ही अंग्रेज़ी में ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। वे तथाकथित व्याकरणविहीन अच्छी अंग्रेज़ी बोलना भले सीख लें, किंतु इस भाषा का भी समुचित ज्ञान पाने में विफल रहते हैं। अतः इन स्कूलों ने भाषाई दृष्टि से देश का बड़ा नुकसान किया है। इस पर तुर्रा यह कि इन स्कूलों में पढ़ने वाले नौनिहालों के माता-पिता अक्सर बच्चे के हिंदी न आने और तथाकथित अंग्रेज़ी संभाषण कला पर मूढ़तावश गर्व प्रदर्शित करते हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है तो इनके हिंदी ज्ञान के विषय में जितना कम कहा जाए, उतना बेहतर होगा। मैं अक्सर यह कहता हूं कि हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थी आईएएस और पीसीएस तथा प्रथम या द्वितीय श्रेणी अधिकारी बनकर उच्च पदों पर आसीन होते हैं, जबकि तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी सेल्स या मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव, एमएनसी की चौबीस घंटों की हाड़तोड़ नौकरी अथवा तृतीय या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी बनकर जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं।

प्रश्न 3) दक्षिण भारतीय (मुख्यतः तमिलभाषी) प्रायः हिंदी थोपे जाने को लेकर आशंकित रहते हैं। इस पर आपका क्या विचार है?

उत्तर 3) मैं नहीं मानता कि अब दक्षिण भाषी विशेषकर तमिल लोग हिंदी थोपे जाने को लेकर आशंकित हैं और तमिलनाडु में हिंदी का विरोध करने वाले कुछ क्षेत्रीय राजनेता हैं, जिनको लगता है कि हिंदी का विरोध करके वे तमिल भाषियों के वोट हासिल कर सकेंगे। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का यह विरोध उसे वोट हासिल करने में सफल नहीं बना सका है और वह महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रासंगिक हो गई है। तमिलनाडु में भी यह विरोध अब प्रतीकात्मक बनकर रह गया है। भाषाई सौहार्द्र हम सभी की जिम्मेदारी है और हमें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा जैसी संस्थाओं और फ़िल्मों के द्वारा तथा उनकी भाषाओं को भी सीखकर तमिलभाषियों एवं अन्य प्रांतों के भाषाभाषियों के मन में जबरन भरी गई आशंकाओं को निर्मूल करने हेतु आगे आना होगा। हिंदी पट्टी के शिक्षक एवं बुद्धिजीवी इस दिशा में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।

प्रश्न 4) गणित, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा एवं प्रबंधन से संबंधित शिक्षा क्या अंग्रेजी माध्यम के बिना संभव नहीं है?

उत्तर 4) यह भ्रामक धारणा है कि गणित, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा एवं प्रबंधन जैसे विषयों की शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम के बिना संभव नहीं है। मैं इस धारणा के समर्थकों से पूछना चाहता हूं कि यूरोप, रूस, चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में शिक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषाएं ही हैं तो क्या वहां के विद्यार्थी गणित, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा एवं प्रबंधन जैसे विषयों में किसी से कमतर हैं अथवा क्या वे अनुसंधान एवं विकास की दृष्टि से पिछड़ गए हैं? मेरा ही नहीं वरन् आप सभी का उत्तर होगा- नहीं। इसलिए आवश्यकता इच्छा शक्ति की है। सुखद है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे प्रमुख लक्ष्य माना गया है।

प्रश्न 5) अधिकांश विकसित देशों की शिक्षा प्रणाली का माध्यम मातृभाषा है। भारत में ऐसा क्यों नहीं हो पाया?

उत्तर5) भारत में शिक्षा प्रणाली का माध्यम मातृभाषा न बन पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी हमारे नीति निर्धारकों एवं राजनैतिक नेतृत्व की अंग्रेजियत की मानसिकता रहा है। नेहरू जी के नेतृत्व में आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ होने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके पीछे पर्दे की ओट से काम करने वाले वामपंथियों ने डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के आने तक (अटलबिहारी वाजपेई के विदेश मंत्री के दायित्व तथा उनकी सरकार के कुछ वर्षों को छोड़कर, जिसमें उन्होंने हिंदी के प्रति गर्व की भावना विकसित करने की शुरूआत की और दुनिया भर में हिंदी में भाषण देकर हिंदी के मस्तक को ऊंचा रखने का कार्य किया) देश को गर्वोन्नत करने वाले प्रत्येक विषय को गौण रखा ताकि अन्तरराष्ट्रीयता की आड़ लेकर राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय संस्कृति की उपेक्षा की जा सके।

प्रश्न 6) सन1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की क्या पृष्ठभूमि थी? वह क्या परिस्थितियाँ थीं,जो देवनागरी को अपनी ही मातृभूमि में प्रचार की आवश्यकता पड़ी?

उत्तर 6) सन 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना इसलिए आवश्यक थी क्योंकि हिंदी बनाम उर्दू और फारसी का द्वंद्व अंग्रेज़ों ने खड़ा करना शुरू कर दिया था और मैकाले की शिक्षा नीति से निकले काले अंग्रेज़ भी अंग्रेजियत को ही संस्कार और सभ्यता का पर्याय मानने लगे थे। ऐसे में एक ऐसी संस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जो नागरी लिपि और हिंदी को उसका चिर प्रतीक्षित स्थान प्राप्त करने में सहायक हो सके।

प्रश्न 7) काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रहते हुए भी हिंदी का पहला प्रामाणिक व्याकरण 'नागरी प्रचारिणी सभा' के अंतर्गत आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जबलपुर के मिडिल स्कूल के हेडमास्टर 'कामता प्रसाद गुरु' द्वारा लिखा गया। ऐसी क्या विवशता थी?

उत्तर7) इस सम्बन्ध में मुझे इतना ही कहना है कि केटेलर, शुल्जे, हाडले, गिलक्राइस्ट आदि जैसे विदेशी विद्वानों ने हिंदी के व्याकरण ग्रंथ लेखन की शुरूआत की। संभवतः भारत की जनता से सम्पर्क करने तथा प्रशासनिक सुगमता की दृष्टि से उन्हें आवश्यक लगा होगा। दूसरी बात यह कि कामताप्रसाद गुरु द्वारा लिखे गए हिंदी व्याकरण ग्रंथ को उन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की आज्ञा से, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी एवं माधवराव सप्रे की प्रेरणा से तथा बाबू श्यामसुन्दर दास, रामावतार शर्मा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, लज्जा शंकर झा, राम नारायण मिश्र, जगन्नाथ दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्याकरण संशोधन समिति की सम्मति से लिखा और यह इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से प्रकाशित हुआ। अतः इसे अनेक हिंदी वैयाकरणों का सामूहिक योगदान माना जाना चाहिए। तीसरी बात यह कि किसी ग्रंथ के लेखन के लिए नगर विशेष का योगदान होना अपरिहार्य नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 8) भारतीयों द्वारा संचालित 'काशी हिंदू विश्वविद्यालय' में हिंदी के विभाग की सन 1924 में स्थापना हुई जबकि अंग्रेजों द्वारा संचालित 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' में हिंदी का विभाग 1919 में ही स्थापित हो गया था। ऐसी क्या परिस्थितियां थी, जो भारतीय अपने ही विश्वविद्यालय में अपनी ही भाषा का विभाग स्थापित नहीं कर पाए ?

उत्तर8) अंग्रेज़ों ने हिंदी के महत्त्व को समझते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना की थी। भारतीयों में पण्डित मदनमोहन मालवीय जी हिंदी के प्रति पर्याप्त सचेष्ट थे और वे सन 1900 ई. में न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग को प्रारंभ करने हेतु अनेक प्रयत्न कर चुके थे तथा वे स्वयं भी हिंदी में कविताएं लिखा करते थे। अतः उनके द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्वाभाविक रूप से हिंदी विभाग की स्थापना की गई। कालान्तर में अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसका अनुसरण किया गया।

प्रश्न 9) अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के व्याकरण सदियों से उपलब्ध थे, किंतु हिंदी का नहीं। इसके पीछे क्या कारण रहे?

उत्तर 9) मेरे मतानुसार हिंदी व्याकरण के देर से उपलब्ध होने के पीछे साहित्य क्षेत्र में ब्रज और अवधी का प्राधान्य माना जाना चाहिए। इसी कारण जब प्रारंभिक रूप से गद्य में भारतेन्दु युग में तथा काव्य में द्विवेदी युग में  हिंदी के साहित्य स्वरूप के स्थिर होने के बाद विद्वानों का ध्यान हिंदी के मानक व्याकरण ग्रंथ की ओर गया।

प्रश्न 10) सन 1936 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन में महात्मा गांधी द्वारा अध्यक्षता करने के बावजूद उसी वर्ष उन्होंने 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' (वर्धा) की स्थापना कराई और नागपुर में ही उसी समय उसका पहला अधिवेशन कराया। इसकी क्या पृष्ठभूमि थी?

10) मेरे विचार से इसका प्रमुख कारण देश भर में हिंदी के प्रचार- प्रसार को बढ़ावा देना होना चाहिए लेकिन यहां यह ध्यातव्य है कि गांधी जी हिंदी और उर्दू के मिश्रित रूप हिंदुस्तानी को देश की राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे, जो कृत्रिम और देश भर में कहीं भी प्रयुक्त न होने वाली भाषा थी। ऐसा करने के पीछे सम्भवतः मुसलमानों को तुष्ट करने की भावना रही होगी, किंतु उनके इस सुझाव को किसी ने भी स्वीकार

नहीं किया।

प्रश्न 11) हिंदी को पूरे राष्ट्र की संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए क्या प्रयत्न किए जाने चाहिए?

उत्तर11) हिंदी आज पूरे राष्ट्र की सम्पर्क भाषा है क्योंकि देश के प्रत्येक प्रांत में आज हिंदी में बात करते हुए आप आराम से अपने दैनंदिन कार्य कर सकते हैं। अब सम्पूर्ण भारत में हिंदी में पठन-पाठन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। टीवी, फ़िल्मों तथा देश भर के विश्वविद्यालयों में फैले हिंदी विभागों ने हिंदी को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई है। इसे और आगे ले जाने के लिए विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों को हिंदी में तैयार करने, आपसी वार्तालाप में हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग करने एवं अंग्रेजियत को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 12) वर्तमान परिदृश्य में हिंदी की क्या-क्या चुनौतियां हैं? उत्तर 12) वर्तमान परिदृश्य में हिंदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिंदीभाषियों के मन से अंग्रेजियत की बू को खत्म करना है। यह ऐसी मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति है, जो आत्मघाती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों हेतु उच्च स्तरीय हिंदी की पुस्तकें तैयार करना, हिंदी को संयुक्त राष्ट्र  की अधिकृत भाषा बनाकर विश्व राजनय में हिंदी को स्थापित करना, फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, वेबसीरीज, पत्र पत्रिकाओं तथा सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग करना जैसी चुनौतियां भी हमारे समक्ष हैं। आम हिंदीभाषियों, हिंदी शिक्षकों, विद्यार्थियों, विद्वानों तथा बुद्धिजीवी वर्ग के समन्वित प्रयास से हम इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करते हुए हिंदी को विश्वभाषा के रूप में स्थापित करने में सफल होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

© डॉ. पुनीत बिसारिया

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