नवीन संकल्पनाओं और वैज्ञानिकता के पक्ष में मुखरित आवाज़ों के प्रबल प्रवक्ता आर्यभट्ट
पिछले दिनों मैंने प्रताप सहगल जी से उनका नाटक अन्वेषक पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। उन्होंने इसकी एक प्रति मुझे फौरन भेज दी। सहगल जी समकालीन हिन्दी नाटककारों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं और अपने नाटकों के विषय और अन्तर्वस्तु की मौलिकता से हमें चौंकाते हैं।
इतिहास पर नाट्य लेखन हिन्दी साहित्य में नाटकों की शुरुआत से ही पाया जा रहा है और अन्वेषक इस श्रृंखला में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराने में सफल सिध्द होगा ऐसा मेरा अभिमत है।
अन्वेषक एक खगोलशास्त्री अथवा गणितज्ञ के रूप में आर्यभट्ट को प्रस्तुत ही नहीं करता वरन धार्मिक अंधविश्वासों के मकड़जाल से नवीन संकल्पनाओं और वैज्ञानिकता के पक्ष में मुखरित आवाज़ों के प्रबल प्रवक्ता के रूप में उन्हें हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है किन्तु कुछ प्रश्नों के उत्तर यह नाटक नहीं देता, जैसे- आर्यभटीय की लोकस्वीकृति कैसे संभव हुई, शून्य के अन्वेषण को आर्यभट्ट के ईर्ष्यालु विरोधियों ने स्वीकार कैसे किया होगा? दूसरी बात राष्ट्र से जुड़ी है। भारत में राष्ट्र और धर्म कभी एक दूसरे के विरोधी नहीं रहे। बल्कि चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास, महामति प्राणनाथ आदि ने इतिहास में यह सिध्द किया है कि धर्म ने राजसत्ता का पथ प्रदर्शित किया है, ऐसे में गुप्त वंश के काल में धर्म और राष्ट्र की बहस शायद वर्तमान दौर की चर्चा में पुरातन प्रतीकों के माध्यम से हस्तक्षेप का प्रयास है।लेकिन यह भी कहना होगा कि धर्म का नाम लेकर अन्वेषण का विरोध करने वाले लोग धार्मिक नहीं अपितु धर्म का अपने लाभ के लिये दुरुपयोग करने वाले धर्म के व्यापारी हैं। इसलिये इस नाटक में धर्म को विज्ञान के बरक्स खड़ा करने की कोशिश के रूप में न देखा जाए।
आगामी 2 सितम्बर को ग्वालियर में इस नाटक का मंचन किया जा रहा है, जिसमें उपस्थित रहने का मैं भी प्रयास करूंगा। नाटक की विस्तृत चर्चा फिर कभी प्रकाशित करूँगा। फिलहाल इतना ही कहूंगा कि विज्ञान और धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाले लोगों के बीच द्वंद्व देखना हो तो यह नाटक अवश्य देखें।
संक्षेप में स्पष्ट समीक्षा
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