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Showing posts from June, 2015

मेरी प्रकाशित पुस्तक "वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री" का अंश

यह लेख मेरी  प्रकाशित  पुस्तक "वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री" का अंश है. कृपया पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया से उपकृत करें. वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विष में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं,‘‘उनके अनुसार स्त्री का मन चंचल होता है, उसे नियंत्रण में रखना असम्भव सा है।1 उसकी बुद्धि भी छोटी होती है।2 वह अपवित्र होती है और उसका हृदय भेड़िये सा होता है।3 यदि विवाह के पश्चात् वधू के घर अपने पर परिवार के किसी सदस्य को, यहां तक कि मवेशियों को भी कुछ हो जाता था, तो उसका दोष आज की भांति ही नववधू के सिर मढ़ दिया जाता था। इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग4 अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। इन्द्र के आने पर इन्दाणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते...

'मलाई'

Geeta Shree हमारे समय की महत्त्वपूर्ण लेखिका हैं। उनकी नवीनतम कहानी 'मलाई' एक लड़की की मलाई खाने के प्रति आसक्ति, गोरी होने की लालसा के अन्तर्संघर्ष के बीच झूलते हुए स्त्री विमर्श के कुछ नुकीले सवालों से सामना कराती है। इस कहानी में माँ- पिता और भाई का सुरीली के प्रति अतिशय संरक्षणवादी रवैया मध्यमवर्गीय परिवारों की हक़ीक़त है। भाई और पिता को मलाईदार दूध लेते देखना और खुद को इससे वंचित पाना एक बेहद सामान्य सी दिखने वाली पारिवारिक घटना है जिसे गीताश्री उसकी पूरी बुर्जुआवादी छवि के  साथ वे कहानी में पेश कर देती हैं। फेयर एण्ड लवली बनाम मलाई के द्वंद्व में फंसकर सुरिलिया मलाई को चेहरे पर गोरी होने हेतु लगाने से बेहतर अपनी चिरदमित यूटोपियाई चाह कटोरी भर मलाई खाने से पूरी करती है। यह एक लड़की का घर की चौखट पर बैठकर पेट भर मलाई खाना नहीं है अपितु इसके बहाने लेखिका पुरुष वर्चस्व के हथियारों पर अपने तरीके से चोट करती है। यहाँ तक कि नायिका की माँ और इधर की उधर लगाने वाली शीला दाई भी इस दिग्विजयी कार्य में कहीं न कहीं अपनी जीत का भी अनुभव करती है। ऐसे में मलाई सिर्फ दूध की मोटी परत भर न रहकर...

मेरी समस्या

मेरी समस्या मेरी समस्या यह है कि जब कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करता हूँ तो कांग्रेसी मित्र नाराज़ हो जाते हैं, भाजपा की आलोचना पर दक्षिणपंथी मित्रों को बुरा लगता है और वामपन्थ की आलोचना करने पर तो नामवरी मित्र मेरे पीछे ही पड़ जाते है। लेकिन मैंने हमेशा यह प्रयास किया है कि मैं विचारधाराओं की बेड़ियों से मुक्त रहकर अपनी बात कहूँ। इसमें समर्थक भले ही कम मिलें लेकिन इस बात का संतोष तो रहता ही है कि मैंने निष्पक्ष होकर स्वविवेक से लिखा है और जो भी लिखा है उसके लिए मन में कोई अपराधबोध नहीं है।

आपातकाल के 40 बरस

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यूँ तो पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने सन 1962 में चीन से युद्ध के समय तथा इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय भी आपातकाल लगाया था किन्तु इन दो आपातकालों की वैधता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जाता क्योंकि उस समय आपातकाल लगाया जाना आवश्यक था क्योंकि देश बाहरी दुश्मन से युद्ध लड़ रहा था लेकिन 25-26 जून की मध्य रात्रि को तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और अपने बिगड़ैल पुत् र संजय गांधी के कहने पर अपनी कुर्सी बचाने के लिए जो आपातकाल देशवासियों पर थोपा उसके लिए देश उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। दरअसल यह आपातकाल इसलिए लगाया गया था क्योंकि इलाहबाद  उच्च न्यायालय के निर्भीक और निष्पक्ष न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध रायबरेली से चुनाव लड़े राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए इंदिरा गांधी को चुनाव में हेराफेरी का दोषी पाया और उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी। इसके बाद उच्चतम न्यायालय में भी न्यायमूर्ति वी आर कृष्ण अय्यर ने इस सजा को बरकरार रखा। इंदिरा ने इसके खिलाफ उच्चत...

साहित्य, समाज और सिनेमा

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि इस नज़रिए से सिनेमा को देखा जाए तो सिनेमा को समाज की अन्तर्शिराओं में बहने वाले रक्त की संज्ञा दी जा सकती है। प्रारम्भ से ही सिनेमा ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव छोड़े हैं। भारत की पहली फिल्म सत्य हरिश्चन्द्र देखकर बालक मोहनदास करमचंद गांधी रो पड़े थे और ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सत्यनिष्ठा से प्रेरित होकर उन्होंने आजीवन सत्य बोलने का व्रत ले लिया था। वास्तव में इस फिल्म ने ही उन्हें मोहनदास से महात्मा गांधी बनने की दिशा में पहला कदम रखने हेतु प्रेरित किया था। स समाज, न नवीन, म मोड़ अर्थात् सिनेमा ने समय-समय पर समाज को नया मोड़ देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। साहित्य ने भी समाज के इस महत्त्वपूर्ण दृश्य-श्रव्य माध्यम के पुष्पन-पल्लवन में अपना योगदान किया है। यदि हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ, तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भक्त प्रह्लाद’, ‘लंका दहन’, ‘कालिय मर्दन’, ‘अयोध्या का राजा’, ‘सैरन्ध्री’ जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मि...

साहित्य और सिनेमा

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यदि  हम शुरूआती सिनेमा की ओर नज़र दौड़ाएँ ,  तो पाते हैं कि इसकी शुरूआत ही पौराणिक साहित्य के सिनेमाई रूपान्तरण से हुई. ‘ सत्य हरिश्चन्द्र ’, ‘ भक्त प्रह्लाद ’, ‘ लंका दहन ’, ‘ कालिय मर्दन ’, ‘ अयोध्या का राजा ’, ‘ सैरन्ध्री ’  जैसी प्रारंभिक दौर की फिल्में धार्मिक ग्रंथों की कथाओं का अंकन थीं. इन फिल्मों का धार्मिक और आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्य भी था. चौथे दशक से फिल्मों में सामाजिक कथाओं की भी आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा और इसके लिए समकालीन साहित्य के रचनाकारों की ओर देखना लाज़मी हो गया. नतीजा यह हुआ कि सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा. मण्टो की लेखनी से  ‘ किसान कन्या ’, ‘ मिर्ज़ा गालिब ’, ‘ बदनाम ’ जैसी फि़ल्में निकलीं. प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए. बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास ,  पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र ,  मनोहरश्याम जोशी ,  अमृतलाल नागर ,  कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव ,  रामवृक्ष बेनीपुरी ,  भगवतीचरण वर्मा ,  राही मासूम रज़ा ,  सुरेन्द्र वर्मा ,...

हिंदी फॉन्ट का मानकीकरण हो।

कंप्यूटर, लैपटॉप, स्मार्ट फोन आदि नए नवेले संचार माध्यमों में हिंदी का प्रयोग तेज़ी से हो रहा है। गूगल ने हिंदी इनपुट टूल सेवा और बोलकर टाइप करने की सुविधा देकर हिंदी में लिखने वालों की संख्या में इजाफा किया है लेकिन प्रिंट माध्यमों में हिंदी फॉन्ट का मानकीकरण न होने के कारण अराजकता की स्थिति है। विन्डोज़ और लिनक्स प्लेटफार्म पर हिंदी का न तो एक मानक की बोर्ड सेट है और न ही अक्षरों का कुंजीपटल पर स्थान ही निर्धारित है। कनवर्टर का इस्तेमाल करने पर वर्तनी की अशुद्धियाँ हो जाना आम बात है। विशेषकर श और ष की अशुद्धि रह जाना सामान्य घटना है जिसका खामयाजा हम लेखकों को उठाना पड़ता है। यूनिकोड फॉन्ट के हिंदी में भी आ जाने से कुंजीपटल पर अक्षर याद रखने की समस्या से कुछ हद तक निजात तो मिली है किन्तु यहाँ भी अराजकता व्याप्त है। मंगल, चाणक्य आदि अनेक यूनिकोड फॉन्ट होने से और इनका सरकारी स्तर पर मानकीकरण न किए जाने से यह समस्या रहती है कि कोई आलेख, शोधपत्र अथवा लेख किस फॉन्ट में भेजा जाए। यही नहीं बल्कि अक्सर विन्डोज़ के नए वर्ज़न में लेख भेजने पर पुराने वर्ज़न में नहीं खुल पाता। उदहारण के लि...