कौन कहे? यह प्रेम हृदय की बहुत बड़ी उलझन है
“‘उर्वशी’ पढ़ते-पढ़ते जब मैंने यह पंक्ति पढ़ी कि
‘उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं’ तब एकदम ऐसा लगा कि दिनकर ने पुरुरवा के मुख
से जो यह पंक्ति कहलाई है, वह पुरुरवा पर चाहे लागू होती हो या न होती हो, दिनकर
पर लागू होती है.
और ‘समय’ का अर्थ यहाँ अखिल समय मानना चाहिए.
दिनकर अपने देश के ही नहीं, अपने समय के सूर्य कवि थे. यह तो हमारा दुर्भाग्य है
कि हमारी भाषा एक अभिशप्त भाषा है. इसमें लिखने वाला अंतरराष्ट्रीय कदाचित ही हो
पायेगा........हिन्दी का हर पाठक अपने मन में जानता है कि अगर दिनकर ठीक अनुवादित
होकर देश-विदेश में पेश किये जाते तो पिछले पचास साल में उत्पन्न किसी भी विश्व
कवि कहे जाने वाले कवि के मुकाबले में ऐसे छोटे तो न पड़ते.”1
उपर्युक्त पंक्तियाँ
दिनकर के समकालीन कवि भवानीप्रसाद मिश्र की हैं. यदि एक समकालीन कवि उनके विषय में
इतनी बड़ी प्रशंसा कर रहा है तो यह अनौचित्यपरक हो भी नहीं सकती. उर्वशी वास्तव में
कामायनी का एक्सटेंशन है. कामायनी के नामकरण को काम से जोड़ने के बावजूद प्रसाद
‘काम मंगल से मंडित श्रेय, सर्ग इच्छा का है परिणाम’ कहकर जिसे अधूरा छोड़ देते
हैं, उसे दिनकर उर्वशी में पूर्णता प्रदान करते हैं. उर्वशी की भूमिका में वे
स्वयं कहते हैं, “मनु और इड़ा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क,
विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है, वह पुरुषार्थ के अर्थ पक्ष को
महत्त्व देता है, किन्तु पुरुरवा-उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय, कला और
निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम पक्ष का माहात्म्य
बताता है.”2
उनके यहाँ “उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र
की कामनाओं का प्रतीक है; पुरुरवा रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले
सुखों से उद्वेलित मनुष्य.”3 कामायनी में काम संयमित है जबकि उर्वशी
में यह निस्सीम है. कामायनी में आदर्श की प्रतिष्ठा है इसलिए सुखांत के साथ कथा
निष्पत्ति को प्राप्त होती है किन्तु उर्वशी में काम के सूक्ष्म मनोभावों का आकलन
करके कवि निष्कर्ष निकालता है, “ नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर
नारी के आलिंगन में संतोष मानता है, कोई शक्ति है, जो नारी को नर तथा नर को नारी
से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का
संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है.”4
उर्वशी का ‘कामाध्यात्म से ‘अध्यात्म’
जुड़ता तो है किन्तु ‘शारीरिक
धरातल’ के रास्ते से, कवि स्वयं कहता और स्वीकारता है, “जीवन में सूक्ष्म आनंद और निरुद्देश्य सुख
के जितने भी सोते हैं, वे कहीं-न-कहीं काम के पर्वत से फूटते हैं. जिसका काम
कुंठित, उपेक्षित अथवा अवरुद्ध है, वह आनंद के अनेक सूक्ष्म रूपों से वंचित रह
जाता है. हीन केवल वही नहीं है, जिसने धर्म और काम को छोड़कर केवल अर्थ को पकड़ा है;
न्यायतः उकठा काठ तो उस साधक को भी कहना चाहिए, जो धर्म सिद्धि के प्रयास में अर्थ
और काम दोनों से युद्ध कर रहा है.”5
उर्वशी पर विस्तृत चिन्तन से पूर्व आइये,
इसकी पूर्वपीठिका भी जान लें, उर्वशी के सृजन से पूर्व दिनकर की ख्याति एक वीर रस
के कवि के रूप में थी. यद्यपि दिनकर ने उर्वशी से पूर्व रसवंती, रेणुका और द्वंद्वगीत में
कुछ प्रणय गीत अवश्य लिखे किन्तु उन्हें कभी भी प्रणय का कवि नहीं स्वीकारा गया.
उलटे आलोचकों ने उन पर यह आरोप लगाने शुरू कर दिए कि वे बौद्धिक कविताएँ नहीं लिख
सकते और केवल वीर रस की चाशनी में पगी रचनाएं ही लिख सकते हैं. इससे विचलित होकर
दिनकर ने कहा, “ माचा पर बैठे-बैठे टीन बजाते थक गया हूँ. अब कुछ ऐसा लिखना चाहता
हूँ, जिसमें आत्मा का रस अधिक हो.”6
इस चुनौती के प्रत्युत्तर में अन्यत्र
उन्होंने कहा,“ मैं भी चाहता था कि गर्जन-तर्जन छोड़कर कोमल कविताओं की रचना करूँ,
जिनमें फूल हों, सौरभ हों, रमणी का सुंदर मुख और प्रेमी पुरुष के हृदय का उद्वेग
हो.”
जब उन्होंने प्रणय की रचना की कथा की खोज
की तो उनकी दृष्टि उर्वशी और पुरुरवा की प्रणय गाथा पर आकर ठहर गयी. इसके बाद
उन्होंने ऋग्वेद, शिवपुराण, पद्मपुराण, मनुस्मृति, महाभारत, शतपथ ब्राह्मण और
विक्रमोर्वशीयं में इस कथा के अन्तः सूत्रों की तलाश शुरू की और रवीन्द्रनाथ ठाकुर
तथा महर्षि अरविन्द कृत उर्वशी का भी गहन अध्ययन किया किन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह
कि उन्होंने इन कथाओं को ज्यों का त्यों न लेकर इस कथा को एक नवीन दृष्टिकोण और नवीन युग के अनुरूप
प्रश्नों से जोड़ने का काम किया, ऐसे ही जैसे ‘पानी पर चलो, किन्तु, पानी का दाग
नहीं लगे’7 और सामने आयी एक ऐसी रचना जिसने उनके
आलोचकों का मुंह बंद कर दिया. सन 1953 से 1961 तक लगभग 8 वर्ष की दीर्घ कालावधि के
चिन्तन, मनन और सृजन का परिणाम है यह कृति.
दिनकर कृत उर्वशी की कथा प्रतिष्ठानपुर के
ऐल नरेश पुरुरवा और स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी के प्रेम पर आधारित है, जिसके प्रथम
अंक में उर्वशी अतीन्द्रिय प्रेम से अतृप्त होकर ऐन्द्रिक प्रेम पाने के लिए धरती
पर आती है और पुरुरवा के उद्यान में आयी अप्सराएँ यह सूचना देती हैं कि उर्वशी ने
प्रथम बार स्वर्ग में पुरुरवा के दर्शन किये और दोनों में प्रेम जाग्रत हो गया है.
द्वितीय अंक में पुरुरवा की पत्नी रानी औशीनरी को इस प्रेम का पता चलता है और वह विलाप
करती है. कथा के वास्तविक पक्ष का निदर्शन तृतीय अंक में दृष्टिगोचर होता है, जब
उर्वशी और पुरुरवा का मिलन होता है और परस्पर संसर्ग से वे दोनों अपने-अपने अनुसार
प्रणय को परिभाषित करते दीखते हैं और परस्पर वार्त्तालाप के माध्यम से प्रेम के
गूढ़ तत्वों पर अपने विचार रखते हैं. चतुर्थ अंक में सुकन्या उर्वशी के नवजात का
पालन करती है. पांचवें अंक में शाप के फलीभूत होने के कारण उर्वशी वापस स्वर्ग की
ओर प्रस्थान करती है और सुकन्या
उर्वशी-पुरुरवा के पुत्र आयु को प्रतिष्ठानपुर ले आती है, पुरुरवा संन्यास ले लेता
है और आयु के राज्याभिषेक के साथ कथा का समापन होता है.
प्रथमदृष्टया देखने में यह कथा बेहद
साधारण प्रतीत होती है किन्तु यह दिनकर का रचना कौशल है जो इस कथा में अपने चमत्कार
से इसे युगसापेक्ष प्रश्नों से लैस कर पुरुषार्थ से जोड़ देता है और कुछ ऐसे अबूझ
सवाल हमारे समक्ष रखता है, जिनसे भारत का समकालीन समाज प्रायः नजरें चुरा लिया
करता है.
प्रेम, काम और सम्भोग जैसे प्रश्न उठाना
पारम्परिक भारतीय समाज में प्रायः वर्जित है. यह कृति ऐसे सवालों से सफलतापूर्वक
जूझती है. आलोचक भी इस कृति के विषय में एकमत नहीं हैं. कुछ आलोचकों ने कहा है कि 'उर्वशी' में एक दुर्निवार कामुक अहं ने अस्वाभाविक
ढंग से आध्यात्मिक मुकुट पहनने की कोशिश की है तो कुछ आलोचकों ने उर्वशी को 'समाधिस्थ चित्त' की देन बतलाया है। ‘कल्पना’
पत्रिका में इस पर काफी विवाद चला. मुक्तिबोध ने
दिनकर पर आरोप लगाते हुए लिखा, “ कवि
कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं, साथ
ही इस गतिविधि के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने भी इस पर सहमति जताई है।”9
लेकिन यदि हम इस कृति के सांगोपांग निरूपण पर ध्यान दें तो पाते
हैं कि कवि का मनोभाव सिर्फ इतना ही नहीं है, वरन वह यह सिद्ध करना भी चाहता है कि
काम अवर्ण्य नहीं है अपितु धर्म और अर्थ की भाँति उसे भी पुरुषार्थ का एक
महत्त्वपूर्ण लक्ष्य समझा जाना चाहिए क्योंकि धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और काम से
पुनः धर्म की प्राप्ति की जा सकती है.9
दिनकर ने काम के विकृत रूप पर भी प्रकाश डाला है, जिसके
फलस्वरूप पापकर्म होते हैं और इसके लिए उन्होंने मन को दोषी माना है-
तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का
सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है.
यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदों का;
यही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से
हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है,
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में,
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं.
तन का काम अमृत, लेकिन यह मन का काम गरल है.10
देह से उत्थित होने वाले प्रेम को ही दिनकर जी ने
रहस्य-चिंतन तक पहुंचा दिया है। यह फ़्रायड के मनोवैज्ञानिक ‘सब्लिमेशन’ की तरह एक ‘आध्यात्मिक उन्नयन है। कवि ने प्रेम को मनोमय लोक में पहुंचा दिया है।
पुरूरवा का अंतिम विकल्प कामाध्यात्म की ओर है। तभी तो हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते
हैं “‘उर्वशी’ विश्वब्रह्मांडव्यापी
मानस की नित्य-नवीन सौंदर्य-कल्पना के रूप में ऐसी बिखरी है कि आश्चर्य होता है।
निश्चय ही, यह समाधिस्थ चित्त की रचना है – समाधिस्थ चित्त जो विराट् मानस के साथ एकाकार हो गया था.”.11
दिनकर का ‘काम’ सेक्स भर न होकर
उससे आगे जाता है,
इसीलिए उर्वशी के कथन के माध्यम से दिनकर भारतीय समाज के परम्परावादी
ठेकेदारों को चुनौती देते हुए सवाल करते हैं-
“वह विद्युन्मय
स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती, रोमों में दीपक
बल उठते हैं
?
वह आलिंगन अंधकार है,
जिसमें बंध जाने पर
हम प्रकाश के महासिंधु
में उतराने लगते
हैं ?
और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे
जड़ता की ग्रंथियाँ निखिल तन-मन की खुल जाती हैं ?
यह भी कैसी द्विधा ? देवता गंधों के
घेरे से
निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं.
और देहधर्मी नर फूलों
के शरीर को
तजकर
ललचाता है दूर गंध
के नभ में उड़ जाने को.12
यह चुनौती सिर्फ समाज के ठेकेदारों तक सीमित नहीं है अपितु यह
एक नारी का सम्पूर्ण पुरुष जाति से किया गया वह प्रश्न भी है, जो अभी तक अनुत्तरित
है क्योंकि पुरुष सदैव ऊर्ध्वगामी है, वह परितोषक नहीं अपितु यायावर है, जबकि
स्त्री इसके विपरीत स्वभाव की है. यही वजह है कि जब प्रणयरत उर्वशी पुरुरवा के
प्रेम में एकनिष्ठ थी तो पुरुरवा का मन किसी अव्यक्त की ओर उड़ान भरता रहता है-
“देह प्रेम की
जन्मभूमि है. पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक.
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन-गुह्य लोकों में,
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आँका करती है,
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमंडल में
किसी दिव्य-अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है.13
समीक्ष्य कृति के माध्यम से दिनकर ने यह भी दर्शाया है कि पुरुष
का मूलभूत स्वभाव नित्य नवीनता का आग्रही है. जो नारी यह कर पाने में असफल रहती
है, उसका हश्र औशीनरी सरीखा होता है और जो नारी पुरुष के इस गोपन रहस्य को समझ
लेती है, वह उर्वशी जैसी विजेता होती है जो अपनी छगुनी अंगुली से पुरुष रूपी
चट्टान को हिला सकती है-
उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,
नयी-नयी प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की.
वश में आयी हुई वस्तु से इसको तोष नहीं है,
जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है.14
मुक्तिबोध
और डॉ नामवर सिंह के आरोप इसलिए भी निराधार हैं क्योंकि यदि दिनकर कामात्मक
मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते तथा इस गतिविधि के माध्यम से सांस्कृतिक-आध्यात्मिक
श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन करना चाहते तो वह निष्काम काम सुख को ईश्वरीय पुलक का नाम
न देते और न ही उसे समाधि की ओर प्रवृत्त करने वाली प्रकृति कहते-
“प्रकृति नित्य
आनंदमयी है, जब भी भूल स्वयं को
हम
निसर्ग के किसी रूप (नारी, नर या फूलों)
से
एकतान
होकर खो जाते हैं समाधि निस्तल में,
खुल
जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है,
दैहिक
जग को छोड़ कहीं हम और पहुँच जाते हैं,
मानो,
मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो.”15
काम
की सांस्कृतिक आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व की बात कहने वाले दिनकर पहले कवि या रचनाकार
नहीं हैं. उनसे पूर्व ऋग्वेद, विभिन्न पुराणों, महाभारत इत्यादि में काम के
महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है, जिसे दिनकर ने भूमिका में विस्तारपूर्वक वर्णित किया
है. अतः ऐसा आरोप लगाना दिनकर ही नहीं वरन इन सभी कृतियों के रचनाकारों के साथ भी
अन्याय होगा.
दिनकर
ने ‘मिट्टी की ओर’ निबन्ध संग्रह में लिखा है,“
महाकवि वह है जो अपने शब्दों के मुंह में जीभ दे सके.”14 कहने की आवश्यकता नहीं कि दिनकर उर्वशी में अपने द्वारा तय
की गयी इस कसौटी पर पूरी तरह से सफल हुए हैं. शब्दों के मुंह में जीभ से अभिप्राय
काव्य की प्रभविष्णुता और स्वतः प्रभावशाली होने से है. चित्रमयता भी इसकी एक
ज़रूरत है, जिसे ‘चक्रवाल’ में और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, सच्चे अर्थों
में मौलिक कवि वह है, जिसके उपमान मौलिक होते हैं और श्रेष्ठ कविता की पहचान यह है
कि उसमें उगने वाले चित्र स्वच्छ और सजीव होते हैं..........जिस कविता में जितने
अधिक चित्र उठते हैं, उसकी सुन्दरता भी उतनी अधिक बढ़ जाती है. जो ज्ञान चित्र में
परिवर्तित नहीं किया जा सकता, वह कविता के लिए बोझ बन जाता है.”16
यहाँ यह ध्यातव्य है कि दिनकर अपने प्रारंभिक रचना काल में
छायावाद के कटु आलोचक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं लेकिन वे चक्रवाल की भूमिका
तक आते-आते अपना स्वर बदलने लगते हैं. दिनकर ने ‘मिट्टी की ओर’ में छायावाद को
पुंसत्वहीन कहा था. उन्होंने लिखा था,“
यह अच्छा ही हुआ कि पुंसत्वहीन और अभिशप्त छायावाद की मृत्यु हो गयी.”17 लेकिन यही दिनकर अपने ऊपर लगातार हो रहे आलोचकों एवं
प्रगतिवादियों के तीखे प्रहारों तथा काव्यात्मक विकास के परिणामस्वरूप ‘चक्रवाल’
तक आते-आते छायावादी रचनाओं को श्रेष्ठ स्वीकारने लगते हैं. वे लिखते हैं, “यह
आन्दोलन (छायावाद) विचित्र जादूगर बनकर आया था. जिधर को उसने एक मुट्ठी गुलाल फेंक
दी, उधर क्षितिज लाल हो गया.”18
डॉ विजेंद्रनारायण सिंह इसीलिए लिखते हैं“
दिनकर छायावाद की भर्त्सना करते समय यह भूल गए थे कि उसी की कुक्षि से उनका जन्म
हुआ था. बाद में जब दिनकर को प्रगतिवादियों ने आड़े हाथों लिया और अपने समाज से
बहिष्कृत कर दिया, तब उन्हें आत्मनिरीक्षण का अवसर मिला. उन्होंने महसूस किया कि प्रगतिवाद
साहित्य की अपेक्षा राजनीति का आन्दोलन था. वे तब यह मानने को बाध्य हो गए कि
छायावाद का परिष्कार ही प्रगतिवाद था. दिनकर का परवर्ती काव्य वस्तुतः छायावाद की
छाया में लिखा गया है. परिणामतः उनकी परवर्ती आलोचना उस प्रकार नहीं भड़कती है, जिस
प्रकार वह पहले भड़कती थी.”19
इन तथ्यों के अलोक में डॉ विजेंद्रनारायण सिंह की इस बात से
सहमत हुआ जा सकता है कि ‘उर्वशी के अधिकांश रंग छायावाद की कटोरी से लिए गए हैं.20
इसीलिये स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान और लौकिकता से अलौकिकता की ओर
प्रयाण उर्वशी का मूल स्वर है. वे स्वयं कहते हैं, “इन्द्रियों
के माध्यम से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की अध्यात्मिक महिमा है.”21
अब पुरुरवा और उर्वशी के अन्योक्तिपरक अर्थ की भी चर्चा कर ली
जाये. स्वयं दिनकर ने भूमिका में इनके तीन अर्थों की चर्चा की है. उनके अनुसार-
“मनु
और इड़ा तथा पुरुरवा और उर्वशी की कथाएँ एक ही विषय को व्यंजित करती हैं. जिस
प्रक्रिया के कर्त्तव्य पक्ष का प्रतीक मनु और इड़ा का आख्यान है, उसी प्रक्रिया का
भावना पक्ष पुरुरवा और उर्वशी की कथा में कहा गया है.
सर विलियम विल्सन
ने अनुमान लगाया था कि पुरुरवा-उर्वशी की कथा अन्योक्तिपरक है. इस कथा का वास्तविक
नायक सूर्य और नायिका उषा है. इन दोनों का मिलन कुछ ही काल के लिए होता है, बाद में वे प्रतिदिन बिछुड़ जाते
हैं.
किन्तु, इस कथा को लेने में वैदिक आख्यान की पुनरावृत्ति अथवा वैदिक प्रसंग का
प्रत्यावर्तन मेरा ध्येय नहीं रहा। मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है
और उर्वशी सनातन नारी का.
उर्वशी शब्द का कोषगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा
अथवा कामना। और पुरूरवा शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाना प्रकार का रव करे,
नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो.
उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा
श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से
मिलनेवाले सुखों से उद्देलित मनुष्य.
पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का
स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी.”22
दिनकर ने इस कृति का जो
प्रथम अन्योक्तिपरक अर्थ दिया है, उसके सांचे पर यह कृति खरी उतरती है. कामायनी
में स्वयं इड़ा मनु को कर्त्तव्य का भान कराती है तो यहाँ भावनाओं का कोलाहल है,
द्वंद्व है और भावनाओं में बहकर पुरुरवा का उर्वशी के प्रेम के वशीभूत होना तथा संन्यास
हेतु प्रवृत्त होना अभिव्यंजित है.
द्वितीय अर्थ सर विलियम विल्सन का है, जिसके प्रति न तो दिनकर ने रूचि
दर्शाई है और न ही यह अर्थ इस कृति की कथा से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित है. हाँ, इतना
अवश्य है कि उर्वशी के बार-बार स्वर्ग से धरा पर आने की कथा से इसके तन्तु अवश्य
जुड़ते हैं.
तृतीय अर्थ स्वयं दिनकर ने दिया है, जो कथा के सूत्रों में
सर्वत्र प्रतिध्वनित होता है. पुरुरवा और उर्वशी सनातन नर-नारी के वास्तव में
प्रतीक हैं क्योंकि मानवीय वृत्तियों में आज भी इन दोनों आदि नर-नारियों की
भावनात्मक प्रवृत्ति देखी जा सकती है. यह वास्तव में एक सौन्दर्यशास्त्रीय
विश्लेषण है. पंचेंद्रियों का पंचतन्मत्राओं से सामंजस्य ही सौन्दर्य का हेतु है,
जो प्रकारांतर से आनंद का ही पर्याय है.
अतः यह कहा जा सकता है कि उर्वशी सही मायने में नर-नारी की
आदिम प्रवृत्ति का आख्यान है, जिसे अध्यात्म से संयुक्त करते हुए कवि ने ‘मनुष्य
की कराल वेदना’23 और स्त्री की
‘आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा’24 से प्रदीप्त कर दिया है.
इसीलिए यह अकारण नहीं कि दिनकर ने उर्वशी को ‘अप्सरा-लोक के कवि सुमित्रानंदन
पन्त’ को समर्पित किया है. पन्त जैसे सौन्दर्य के पारखी चित्र काव्य के सम्राट भी
इस कृति पर रीझकर कहते हैं, “दिनकर उत्तरछायावादियों में प्रथम श्रेणी
के कवि हैं. द्विवेदी युग की अभिधात्मक शैली के प्रति आकर्षण होने पर भी छायावादी
सृजन चेतना को उन्होंने अमूल्य पुष्कल भेंट प्रदान की है.”25
सन्दर्भ सूत्र :
1-
मिश्र,
भवानीप्रसाद, उदासी : कभी ओज, कभी खिलखिलाहट, दिनमान, 5 मई, 1974, पृष्ठ 24.
2-
दिनकर,
रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, लोकभारती पेपरबैक्स, छठवाँ संस्करण, 2013 पृष्ठ
9-10.
3-
वही,
पृष्ठ 9.
4-
वही,
पृष्ठ 8.
5-
वही,
पृष्ठ 12.
6-
कुमुद
शर्मा, हिन्दी के निर्माता, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2006, पृष्ठ 323.
7-
दिनकर,
रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, पृष्ठ 14.
8-
http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2011/09/blog-post_23.html
9-
वही,
पृष्ठ 12.
10- वही, पृष्ठ 88.
11- http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2011/09/blog-post_23.html
12- वही, पृष्ठ 55.
13- वही, पृष्ठ 68.
14- वही, पृष्ठ 45.
15- वही, पृष्ठ 89.
16- दिनकर, रामधारीसिंह, चक्रवाल, पृष्ठ 73.
17- दिनकर, रामधारीसिंह, ‘मिट्टी की ओर’,निबन्ध
संग्रह, पृष्ठ 65.
18- दिनकर, रामधारीसिंह, चक्रवाल, भूमिका, पृष्ठ 20.
19- सिंह, डॉ विजेंद्रनारायण, दिनकर : एक
पुनर्मूल्यांकन, पृष्ठ 26.
20- सिंह, डॉ विजेंद्रनारायण, दिनकर : एक
पुनर्मूल्यांकन, पृष्ठ 26.
21- दिनकर, रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, पृष्ठ 9.
22- दिनकर, रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, पृष्ठ 8.
23- दिनकर, रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, पृष्ठ 37.
24- दिनकर, रामधारीसिंह, उर्वशी, भूमिका, पृष्ठ 99.
25- सुमित्रानन्दन, छायावाद : पुनर्मूल्यांकन, पृष्ठ 116.
Comments
Post a Comment