कलिकथा वाया बाइपास के बहाने समाज की पड़ताल
यह लेख अलका सरावगी के उपन्यास कलि कथा वाया बायपास उपन्यास की संकरी कलकतिया गलियों से गुजरकर भारतीय समाज के परिवर्तनों की आहट को महसूसता है.
जिस दौर में ‘कलि कथा वाया बाइपास’ लिखा गया, वह दौर भूमंडलीकरण की आहट के कोलाहल में डूबा हुआ था. उस दौर में हर बुद्धिजीवी अपने-अपने ढंग से इसको परिभाषित कर रहा था और इसके सामाजिक प्रभावों की पड़ताल कर रहा था. यह उपन्यास भी भूमंडलीकृत समाज में सामाजिक व्यवस्था से अजनबीपन की हद तक कटे हुए किशोर बाबू की कहानी है, जिनके दिल की बाइपास सर्जरी क्या हुई, उनका चीज़ों को देखने का नजरिया ही बदल गया. जो किशोर बाबू मध्यमवर्गीय मानसिकता के अनुरूप अनेक प्रकरणों को बाइपास कर जाने की मानसिकता रखते थे, दिल की सर्जरी के बाद बार-बार उन गलियों में चले जाते हैं, जिनसे वे कभी गुजरकर आये थे. उनकी यह यात्रा उन्हें अपने पुरखों के जीवन से 1 जनवरी सन 2000 तक की यात्रा पर ले जाती है, जिसमें प्रसंगानुसार इतिहास की घटनाएं भी चहलकदमी करती रहती हैं.
यह कथा वस्तुतः डेढ़ सौ साल के रूढ़िवादी मारवाड़ी समाज की कथा ही नहीं है, वरन इसमें भारतीय समाज की विसंगतियों की जड़ें देखी जा सकती हैं. उदाहरणार्थ- किशोर बाबू स्त्रियों के प्रति हो रहे अन्याय के प्रति जागरूक तो हैं किन्तु सामाजिक बेड़ियाँ उन्हें पुरातनता के खोल में लौट जाने पर विवश कर देती हैं. किशोर बाबू एक तरफ तो यह सोचते हैं कि हमारे घर की महिलाएँ कितनी विवश और परतंत्र हैं; उन्हें तनिक भी स्वतंत्रता हासिल नहीं है. वे सारे दिन घरों में बंद रहती हैं, अगर उन्हें कहीं बाहर जाना भी होता है तो वे गर्दन तक घूँघट ओढ़कर ही निकल पाती हैं, लेकिन उनकी यह सोच तब हवा हो जाती है जब वे अपनी विधवा भाभी को बिना किनारे की सफ़ेद साड़ी के स्थान पर खुशनुमा पाड़ के रंग की साड़ी पहने देखते हैं. “ भाभी को देखकर उनका चेहरा पहले काला हुआ और फिर लाल- तुम्हारा दिमाग क्या अब एकदम खराब हो गया है भाभी? उम्र बढने के साथ-साथ आदमी की अक्ल बढ़ती है, पर मुझे लगता है यूपी वालों की अक्ल कम होने लगती है. यह क्या इतने चटक मटक रंग की साड़ी पहनी है? क्या कहेंगे लोग देखकर? कुछ तो मर्यादा रखी होती समाज में!” अन्यत्र वे सवाल करते हैं, “औरतों में बुद्धि होती तो छेद न कर देतीं मर्दों के सिर में?”
यह भारतीय मध्यमवर्गीय समाज का पाखण्ड है कि वह आधुनिक तो होना चाहता है किन्तु समाज की बनाई तथाकथित मर्यादा की चौखट के दायरे में रहकर. यही वजह है कि किशोर बाबू को इस बात का अहसास भी नहीं होता कि उन्होंने कुछ गलत कहा है, उलटे इस घटना के बाद उन्होंने ‘हर मौके-बेमौके यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि भाभी अब आउटडेटेड होकर सठिया गयी हैं और उनका दिमाग पूरी तरह काम नहीं करता. लेखिका ने एक महत्त्वपूर्ण स्थापना यह दी है कि युवावस्था में रूढ़ियों से लोहा लेने का जो उत्साह होता है, वार्धक्य आते-आते उसमें उम्र की जंग लगने लगती है और वह अपने पुराने खोल में वापस लौट जाना चाहता है. इसीलिये जब किशोर बाबू बीती घटनाओं का विश्लेषण करते हैं तो अपने हर कृत्य को जायज ठहराने का उपक्रम करते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कुतर्कों का सहारा क्यों न लेना पड़े, “किशोर बाबू आज पीछे पलटकर देखते हैं तो उन्हें नहीं लगता कि उन्होंने कोई गलती की. एक-से-एक किस्से मालूम हैं उन्हें लोगों के. वे कदम फूंक-फूंककर रखते रहे तो इसमें क्या गलत था? आखिर रूपन देवल कितनी भी बड़ी अधिकारी क्यों न हो गयी हो, पर रही तो औरत की जात ही न?” क्योंकि उनके मतानुसार ‘स्त्री और पुरुष के बीच आग और घी का सम्बन्ध होता है.’ उस समय उन्हें अपनी मान्यताएँ दरकती हुई दिखाई देती हैं जब छोटे शहर से आयी उनकी पुत्रवधू उनसे ब्यूटी सैलून में जाने, कॉलेज में पढ़ने, बिंदी न लगाने के लिए कहती है. दूसरी ओर अपनी तीन साल की नातिन को जब वे बाएँ हाथ से खाने पर टोकते हैं तो वह कहती है-‘मेरी मर्जी.’ तब वे सोचते हैं कि ‘जिस घर को बनाने में उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी लगाई, उसके नीचे दीमक लग चुकी है. वह कभी भी धराशाई हो सकता है, मिट्टी में मिल सकता है.’
इतिहास को गप्प शैली में प्रस्तुत करते हुए अलका जी ने वस्तुतः कलकत्ता की जीवनी लिख डाली है. उनका कलकत्ता इतिहास की गलियों में किस्सों, किंवदंतियों, ऐतिहासिक साक्ष्यों और धार्मिक मान्यताओं के सहारे जीवनी शक्ति प्राप्त करता है. इस दौरान वे उन घटनाओं की खाक छानती हैं, जिनमें लिपटकर इस शहर ने कई रंग देखे हैं. ग्रेट ग्रैंडफादर से अपनी तीन वर्षीय नातिन तक की पीढ़ियों के सफ़र के दौरान एक आज़ादी से पूर्व पैदा हुए व्यक्ति की पहचान का संकट, उसके मॉडर्न होते-होते पुरातनता में जाने की बेचैनी, जनरेशन गैप, गाँधी और सुभाष की विचारधारा के बीच गोते लगाना, कलकत्ते की सड़कों पर ब्रांडेड दुकानों का खुलना और इन सबके बहाने समाज में आ रहे परिवर्तनों की आहट को सुनना एक 35 वर्षीय लेखिका (इस उपन्यास को रचते समय अलका जी कि अवस्था यही रही होगी) के लेखन कर्म की सजगता का परिचायक है और यह अनायास नहीं कि इन्हीं उपलब्धियों पर रीझकर साहित्य अकादमी उनकी इस पहली कृति को ही पुरस्कार से अलंकृत कर देती है.
बंगाल के लोकगीत यथास्थान इस कथा में आते हैं और वे कथा की प्रभविष्णुता में अभिवृद्धि कर देते हैं. यह एक आंचलिक उपन्यास भले न हो लेकिन अतीत की समझ को सुदीर्घ करने और बंगाल के सांस्कृतिक परिदृश्य को उकेरने में इनकी भूमिका निर्विवाद है. विद्यापति के गीत और मारवाड़ी लोकगीत भी इसी प्रकार की भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं.
अब कथा बाइपास की. किशोर बाबू के परिवार ने अपने लिए कुछ सिद्धांत तय किये थे, जो प्रायः सभी मध्यमवर्गीय परिवारों पर सहजतापूर्वक लागू किये जा सकते हैं. ये हैं-
1- पुरानी बातें भूलना
2- नए तथ्य गढ़ना
3- कई तरह के जुमलों की ईजाद करना
4- पुरखों के शानदार अचकनधारी गिल्ट-फ्रेम वाले पोर्टेट टांगना, इतिहासप्रसिद्ध लोगों और घटनाओं से उन्हें जोड़ना
5- पुराना फर्नीचर, पुराने गहने, मूर्तियाँ खरीदना.
एक व्यक्ति के जीवन के उत्तरार्ध में जब वह अपनी बीती ज़िन्दगी का ब्यौरा आंकने बैठता है तो कई चीजें-गड्ड मड्ड होने लगती हैं. किशोर बाबू के साथ भी यही हो रहा है. दरअसल मनुष्य की समस्या यही है कि वह किसी बने बनाए रेडीमेड सिद्धांत पर जीवनपर्यन्त नहीं चल सकता. समय, परिस्थितियों और परिवेश के अनुरूप तथा कई बार निजी स्वार्थों के कारण उसके सिद्धांत बदलते रहते हैं. यह मानव मन की प्रवृत्ति है, इसे जो चाहे नाम दो लेकिन सच यही है कि इसी से मनुष्य में मनुष्यता रहती है और वह देवत्व से दूरी बनाए रखता है. किशोर बाबू के परिवार द्वारा बनाए गए सिद्धांत में से कुछ स्वयम किशोर बाबू तोड़ते हैं तो कुछ को समय के साथ टूटता देखकर आश्चर्यचकित होते हैं. उनके दिल की बाइपास सर्जरी उनके परिवार के सिद्धांतों से भी उन्हें बाइपास करा देती है. इन अर्थों में यह एक सामान्य चिकित्सा की शल्यक्रिया न होकर उनके मन की ग्रंथियों की शल्यक्रिया का प्रतीकात्मक अर्थ देने लगती है. और तब कथा के प्रारंभ में लैंसडाउन रोड पर घूमने वाला आदमी, जो सिर पर चोट लगने से पागल हो गया था तथा बाइपास के बाद चोट लगने के कारण सिर के पिछले हिस्से में भयंकर दर्द से व्यथित किशोर बाबू में कोई अंतर नहीं रह जाता.
बाइपास से एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अभिप्रेत यह भी है कि वर्षों से सारी दुनिया समस्याओं के तात्कालिक समाधान को ही अपना लक्ष्य मान बैठी है. समस्या की जड़ पर प्रहार करके उसे समूल नष्ट करने की ओर उसकी दृष्टि प्रायः जाती ही नहीं. सभी समस्याओं की जड़ इसी में है. इस सन्दर्भ में समस्या की राह को बंद कर नयी राह खोल लेना समस्या का सरलीकरण करने से अधिक और कुछ नहीं प्रतीत होता. इसीलिये उपन्यास के अंतिम भाग में शांतनु किशोर से कहता है, “देखो, एक रास्ता जाम होता था, तो हम दूसरा रास्ता बना लेते थे जो उस रास्ते के दोनों सिरों से जुड़ता था. ज्यादा ट्रैफिक होती तो हम वन वे रास्ता बना देते थे. हमने किसी समस्या के कारणों को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की. हर समस्या को बाइपास करने के रास्ते ढूँढ़ते रहे. पर अब तो कोई बाइपास काम नहीं कर सकता.”
इस प्रश्न के बहाने लेखिका कुछ ज़रुरी बातों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं. चाहे व्यक्ति विशेष हो या सरकारी समझ, यह समस्या सर्वत्र विद्यमान है. भेड़चाल हमारी आदत में शुमार हो गया है. हम किसी भी समस्या का समाधान या तो पश्चिमी मॉडल में खोजने के अभ्यस्त हैं या फिर शॉर्टकट इलाज के माध्यम से उस समस्या को कुछ दिनों के लिए हाशिये पर रख देने के हामी हैं. इस सन्दर्भ में लेखिका का यह सवाल अत्यधिक मौजूं बन जाता है कि जब बाइपास के सारे रास्ते, नलियाँ बंद हो जाएंगी, उस समय तुम क्या करोगे? राजनैतिक सत्ता द्वारा लागू किये गए सोवियत मॉडल के विफल होने के बाद भूमंडलीकरण के पूंजीवादी मॉडल और तथाकथित उत्तरआधुनिक परिवेश में बदलते मूल्यों के बहाने लेखिका आगाह करती हैं कि यदि हम अपनी ज़रूरतों के मुताबिक मॉडल विकसित न कर सके तो इस शरीर को बचाने के लिए कोई मॉडल रूपी दवा काम, नहीं करेगी और वह दिन सर्वाधिक भयावह होगा.
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यह उपन्यास बाइपास के स्थान पर थ्रू पास की ज़रूरत पर ज़ोर देता है और उन पारंपरिक मूल्यों, संघर्षों, विचारों तथा रूढ़ियों की पड़ताल करता है, जिन्हें बाइपास करके हमने अपने समाज की सड़ांध को बढाने का काम किया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि लेखिका अपने प्रयास में समग्रतः सफल रही हैं. इस उपन्यास में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनके विखंडन से विमर्श की अनेक गांठें खोली जा सकती हैं और समकालीन समाज के अंतर्विरोधों को समझा जा सकता है. इस कलि कथा की कथा फ़िलहाल यहीं तक, आगे फिर कभी....
जिस दौर में ‘कलि कथा वाया बाइपास’ लिखा गया, वह दौर भूमंडलीकरण की आहट के कोलाहल में डूबा हुआ था. उस दौर में हर बुद्धिजीवी अपने-अपने ढंग से इसको परिभाषित कर रहा था और इसके सामाजिक प्रभावों की पड़ताल कर रहा था. यह उपन्यास भी भूमंडलीकृत समाज में सामाजिक व्यवस्था से अजनबीपन की हद तक कटे हुए किशोर बाबू की कहानी है, जिनके दिल की बाइपास सर्जरी क्या हुई, उनका चीज़ों को देखने का नजरिया ही बदल गया. जो किशोर बाबू मध्यमवर्गीय मानसिकता के अनुरूप अनेक प्रकरणों को बाइपास कर जाने की मानसिकता रखते थे, दिल की सर्जरी के बाद बार-बार उन गलियों में चले जाते हैं, जिनसे वे कभी गुजरकर आये थे. उनकी यह यात्रा उन्हें अपने पुरखों के जीवन से 1 जनवरी सन 2000 तक की यात्रा पर ले जाती है, जिसमें प्रसंगानुसार इतिहास की घटनाएं भी चहलकदमी करती रहती हैं.
यह कथा वस्तुतः डेढ़ सौ साल के रूढ़िवादी मारवाड़ी समाज की कथा ही नहीं है, वरन इसमें भारतीय समाज की विसंगतियों की जड़ें देखी जा सकती हैं. उदाहरणार्थ- किशोर बाबू स्त्रियों के प्रति हो रहे अन्याय के प्रति जागरूक तो हैं किन्तु सामाजिक बेड़ियाँ उन्हें पुरातनता के खोल में लौट जाने पर विवश कर देती हैं. किशोर बाबू एक तरफ तो यह सोचते हैं कि हमारे घर की महिलाएँ कितनी विवश और परतंत्र हैं; उन्हें तनिक भी स्वतंत्रता हासिल नहीं है. वे सारे दिन घरों में बंद रहती हैं, अगर उन्हें कहीं बाहर जाना भी होता है तो वे गर्दन तक घूँघट ओढ़कर ही निकल पाती हैं, लेकिन उनकी यह सोच तब हवा हो जाती है जब वे अपनी विधवा भाभी को बिना किनारे की सफ़ेद साड़ी के स्थान पर खुशनुमा पाड़ के रंग की साड़ी पहने देखते हैं. “ भाभी को देखकर उनका चेहरा पहले काला हुआ और फिर लाल- तुम्हारा दिमाग क्या अब एकदम खराब हो गया है भाभी? उम्र बढने के साथ-साथ आदमी की अक्ल बढ़ती है, पर मुझे लगता है यूपी वालों की अक्ल कम होने लगती है. यह क्या इतने चटक मटक रंग की साड़ी पहनी है? क्या कहेंगे लोग देखकर? कुछ तो मर्यादा रखी होती समाज में!” अन्यत्र वे सवाल करते हैं, “औरतों में बुद्धि होती तो छेद न कर देतीं मर्दों के सिर में?”
यह भारतीय मध्यमवर्गीय समाज का पाखण्ड है कि वह आधुनिक तो होना चाहता है किन्तु समाज की बनाई तथाकथित मर्यादा की चौखट के दायरे में रहकर. यही वजह है कि किशोर बाबू को इस बात का अहसास भी नहीं होता कि उन्होंने कुछ गलत कहा है, उलटे इस घटना के बाद उन्होंने ‘हर मौके-बेमौके यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि भाभी अब आउटडेटेड होकर सठिया गयी हैं और उनका दिमाग पूरी तरह काम नहीं करता. लेखिका ने एक महत्त्वपूर्ण स्थापना यह दी है कि युवावस्था में रूढ़ियों से लोहा लेने का जो उत्साह होता है, वार्धक्य आते-आते उसमें उम्र की जंग लगने लगती है और वह अपने पुराने खोल में वापस लौट जाना चाहता है. इसीलिये जब किशोर बाबू बीती घटनाओं का विश्लेषण करते हैं तो अपने हर कृत्य को जायज ठहराने का उपक्रम करते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कुतर्कों का सहारा क्यों न लेना पड़े, “किशोर बाबू आज पीछे पलटकर देखते हैं तो उन्हें नहीं लगता कि उन्होंने कोई गलती की. एक-से-एक किस्से मालूम हैं उन्हें लोगों के. वे कदम फूंक-फूंककर रखते रहे तो इसमें क्या गलत था? आखिर रूपन देवल कितनी भी बड़ी अधिकारी क्यों न हो गयी हो, पर रही तो औरत की जात ही न?” क्योंकि उनके मतानुसार ‘स्त्री और पुरुष के बीच आग और घी का सम्बन्ध होता है.’ उस समय उन्हें अपनी मान्यताएँ दरकती हुई दिखाई देती हैं जब छोटे शहर से आयी उनकी पुत्रवधू उनसे ब्यूटी सैलून में जाने, कॉलेज में पढ़ने, बिंदी न लगाने के लिए कहती है. दूसरी ओर अपनी तीन साल की नातिन को जब वे बाएँ हाथ से खाने पर टोकते हैं तो वह कहती है-‘मेरी मर्जी.’ तब वे सोचते हैं कि ‘जिस घर को बनाने में उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी लगाई, उसके नीचे दीमक लग चुकी है. वह कभी भी धराशाई हो सकता है, मिट्टी में मिल सकता है.’
इतिहास को गप्प शैली में प्रस्तुत करते हुए अलका जी ने वस्तुतः कलकत्ता की जीवनी लिख डाली है. उनका कलकत्ता इतिहास की गलियों में किस्सों, किंवदंतियों, ऐतिहासिक साक्ष्यों और धार्मिक मान्यताओं के सहारे जीवनी शक्ति प्राप्त करता है. इस दौरान वे उन घटनाओं की खाक छानती हैं, जिनमें लिपटकर इस शहर ने कई रंग देखे हैं. ग्रेट ग्रैंडफादर से अपनी तीन वर्षीय नातिन तक की पीढ़ियों के सफ़र के दौरान एक आज़ादी से पूर्व पैदा हुए व्यक्ति की पहचान का संकट, उसके मॉडर्न होते-होते पुरातनता में जाने की बेचैनी, जनरेशन गैप, गाँधी और सुभाष की विचारधारा के बीच गोते लगाना, कलकत्ते की सड़कों पर ब्रांडेड दुकानों का खुलना और इन सबके बहाने समाज में आ रहे परिवर्तनों की आहट को सुनना एक 35 वर्षीय लेखिका (इस उपन्यास को रचते समय अलका जी कि अवस्था यही रही होगी) के लेखन कर्म की सजगता का परिचायक है और यह अनायास नहीं कि इन्हीं उपलब्धियों पर रीझकर साहित्य अकादमी उनकी इस पहली कृति को ही पुरस्कार से अलंकृत कर देती है.
बंगाल के लोकगीत यथास्थान इस कथा में आते हैं और वे कथा की प्रभविष्णुता में अभिवृद्धि कर देते हैं. यह एक आंचलिक उपन्यास भले न हो लेकिन अतीत की समझ को सुदीर्घ करने और बंगाल के सांस्कृतिक परिदृश्य को उकेरने में इनकी भूमिका निर्विवाद है. विद्यापति के गीत और मारवाड़ी लोकगीत भी इसी प्रकार की भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं.
अब कथा बाइपास की. किशोर बाबू के परिवार ने अपने लिए कुछ सिद्धांत तय किये थे, जो प्रायः सभी मध्यमवर्गीय परिवारों पर सहजतापूर्वक लागू किये जा सकते हैं. ये हैं-
1- पुरानी बातें भूलना
2- नए तथ्य गढ़ना
3- कई तरह के जुमलों की ईजाद करना
4- पुरखों के शानदार अचकनधारी गिल्ट-फ्रेम वाले पोर्टेट टांगना, इतिहासप्रसिद्ध लोगों और घटनाओं से उन्हें जोड़ना
5- पुराना फर्नीचर, पुराने गहने, मूर्तियाँ खरीदना.
एक व्यक्ति के जीवन के उत्तरार्ध में जब वह अपनी बीती ज़िन्दगी का ब्यौरा आंकने बैठता है तो कई चीजें-गड्ड मड्ड होने लगती हैं. किशोर बाबू के साथ भी यही हो रहा है. दरअसल मनुष्य की समस्या यही है कि वह किसी बने बनाए रेडीमेड सिद्धांत पर जीवनपर्यन्त नहीं चल सकता. समय, परिस्थितियों और परिवेश के अनुरूप तथा कई बार निजी स्वार्थों के कारण उसके सिद्धांत बदलते रहते हैं. यह मानव मन की प्रवृत्ति है, इसे जो चाहे नाम दो लेकिन सच यही है कि इसी से मनुष्य में मनुष्यता रहती है और वह देवत्व से दूरी बनाए रखता है. किशोर बाबू के परिवार द्वारा बनाए गए सिद्धांत में से कुछ स्वयम किशोर बाबू तोड़ते हैं तो कुछ को समय के साथ टूटता देखकर आश्चर्यचकित होते हैं. उनके दिल की बाइपास सर्जरी उनके परिवार के सिद्धांतों से भी उन्हें बाइपास करा देती है. इन अर्थों में यह एक सामान्य चिकित्सा की शल्यक्रिया न होकर उनके मन की ग्रंथियों की शल्यक्रिया का प्रतीकात्मक अर्थ देने लगती है. और तब कथा के प्रारंभ में लैंसडाउन रोड पर घूमने वाला आदमी, जो सिर पर चोट लगने से पागल हो गया था तथा बाइपास के बाद चोट लगने के कारण सिर के पिछले हिस्से में भयंकर दर्द से व्यथित किशोर बाबू में कोई अंतर नहीं रह जाता.
बाइपास से एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अभिप्रेत यह भी है कि वर्षों से सारी दुनिया समस्याओं के तात्कालिक समाधान को ही अपना लक्ष्य मान बैठी है. समस्या की जड़ पर प्रहार करके उसे समूल नष्ट करने की ओर उसकी दृष्टि प्रायः जाती ही नहीं. सभी समस्याओं की जड़ इसी में है. इस सन्दर्भ में समस्या की राह को बंद कर नयी राह खोल लेना समस्या का सरलीकरण करने से अधिक और कुछ नहीं प्रतीत होता. इसीलिये उपन्यास के अंतिम भाग में शांतनु किशोर से कहता है, “देखो, एक रास्ता जाम होता था, तो हम दूसरा रास्ता बना लेते थे जो उस रास्ते के दोनों सिरों से जुड़ता था. ज्यादा ट्रैफिक होती तो हम वन वे रास्ता बना देते थे. हमने किसी समस्या के कारणों को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की. हर समस्या को बाइपास करने के रास्ते ढूँढ़ते रहे. पर अब तो कोई बाइपास काम नहीं कर सकता.”
इस प्रश्न के बहाने लेखिका कुछ ज़रुरी बातों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं. चाहे व्यक्ति विशेष हो या सरकारी समझ, यह समस्या सर्वत्र विद्यमान है. भेड़चाल हमारी आदत में शुमार हो गया है. हम किसी भी समस्या का समाधान या तो पश्चिमी मॉडल में खोजने के अभ्यस्त हैं या फिर शॉर्टकट इलाज के माध्यम से उस समस्या को कुछ दिनों के लिए हाशिये पर रख देने के हामी हैं. इस सन्दर्भ में लेखिका का यह सवाल अत्यधिक मौजूं बन जाता है कि जब बाइपास के सारे रास्ते, नलियाँ बंद हो जाएंगी, उस समय तुम क्या करोगे? राजनैतिक सत्ता द्वारा लागू किये गए सोवियत मॉडल के विफल होने के बाद भूमंडलीकरण के पूंजीवादी मॉडल और तथाकथित उत्तरआधुनिक परिवेश में बदलते मूल्यों के बहाने लेखिका आगाह करती हैं कि यदि हम अपनी ज़रूरतों के मुताबिक मॉडल विकसित न कर सके तो इस शरीर को बचाने के लिए कोई मॉडल रूपी दवा काम, नहीं करेगी और वह दिन सर्वाधिक भयावह होगा.
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यह उपन्यास बाइपास के स्थान पर थ्रू पास की ज़रूरत पर ज़ोर देता है और उन पारंपरिक मूल्यों, संघर्षों, विचारों तथा रूढ़ियों की पड़ताल करता है, जिन्हें बाइपास करके हमने अपने समाज की सड़ांध को बढाने का काम किया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि लेखिका अपने प्रयास में समग्रतः सफल रही हैं. इस उपन्यास में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनके विखंडन से विमर्श की अनेक गांठें खोली जा सकती हैं और समकालीन समाज के अंतर्विरोधों को समझा जा सकता है. इस कलि कथा की कथा फ़िलहाल यहीं तक, आगे फिर कभी....
बहुत अच्छी समीक्षा की है पुनीत आपने
ReplyDeleteबहुत अच्छी समीक्षा की है पुनीत आपने
ReplyDeleteसच्चाई बिकती नहीं बाजारों में
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