इक्कीसवीं शताब्दी में हिन्दी का भविष्य
नवें दशक के प्रारम्भ में उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण (एलपीजी)
के आगमन के साथ ही समाजशास्त्रीय चिंतक हिन्दी का मर्सिया पढ़ने लगे थे किन्तु इसके
विपरीत ये पिछले दो दशक हिन्दी की वैश्विक स्वीकृति का खुशनुमा माहौल लेकर आये
हैं. करिश्माई बॉलीवुड का सिनेमा, विश्व भर में फैले प्रवासी भारतीयों का हिन्दी
प्रेम, योग की वैश्विक स्वीकृति, भारतीय अध्यात्म एवं दर्शन के प्रति विदेशियों
में बढ़ रहा अनुराग तथा दुनिया के अनेक देशों में सफलतापूर्वक आयोजित हुए विश्व
हिन्दी सम्मेलनों ने विश्व का हिन्दी के प्रति ध्यान आकर्षित किया है और अब विदेशी
राष्ट्राध्यक्ष भी हिंदीभाषियों तथा हिन्दी की अपने-अपने देशों में अपरिहार्यता को
महसूस करने लगे हैं.यह अनायास नहीं कि ब्रिटेन के आम चुनाव को जीतने के लिए डेविड
कैमरन को ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘अबकी बार कैमरन सरकार’ जैसे विशुद्ध हिन्दी
के नारे गढ़ने पड़ते हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति को भारतीय पर्वों को मनाने हेतु आगे
आना पड़ता है और हिन्दी में भाषण देकर अपनी हिन्दी अनुरक्ति का परिचय देना पड़ता है.
दुनिया के पाँचों महाद्वीपों के लगभग सभी प्रमुख राजनेताओं को भारत और हिन्दी के
प्रति अपने अनुराग का न सिर्फ परिचय देना पड़ता है, वरन उन्हें अपनी राजनैतिक,
वैदेशिक, सांस्कृतिक नीति में हिन्दी को एक प्रमुख भूमिका के रूप में रखना पड़ता
है. ये संकेत इक्कीसवीं शताब्दी में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण भूमिका का इशारा करते
हैं.
इक्कीसवीं शताब्दी के
प्रारंभ के दो दशकों ने यह संकेत दे दिया है कि भाषाई दृष्टि से यह शताब्दी हिन्दी
को समर्पित रहने वाली है. भारत सरकार भी हिन्दी के प्रसार हेतु कृतसंकल्पित प्रतीत
होती है. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी में अभिभाषण देकर
सारी दुनिया को हिन्दी की ताक़त से परिचित कराया है तो भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध
परिषद ने 71 देशों में हिन्दी शिक्षण हेतु भारत से शिक्षकों को भेजने की व्यवास्था
करके हिन्दी को सम्पूर्ण विश्व में फलने-फूलने में सहायता की है. अब यदि हिन्दी
संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा भी बन जाए और काश कि हिन्दी सिनेममे काम करने वाले
अभिनेता, निर्देशक भी हिन्दी में बोलना शुरू कर दें तो इसकी व्याप्ति में और भी
वृद्धि होनी तय है, इसमें किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए.
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