आचार्य अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन की वर्तमान समय में प्रासंगिकता


कश्मीर चिरकाल से भारत का भाल होने के साथ-साथ भारत का ज्ञान चक्षु भी है. शारदा देश के नाम से विख्यात यह क्षेत्र शैव, बौद्ध, तन्त्र, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सिद्ध, सूफी आदि परम्पराओं का क्रीड़ास्थल रहा है. मान्यता है कि कलिकाल में शैव दर्शन का लोप हो गया था, जिसे स्वयम भगवान शिव की प्रेरणा से दुर्वासा ऋषि ने पुनर्स्थापित किया और दुर्वासा ने अपने तीन मानस पुत्रों त्र्यम्बक, अमर्दक और श्रीनाथ को शिवसूत्र के तीन भेदों क्रमशः अभेदवाद, भेदवाद और भेदाभेद्वाद का ज्ञान दिया. शैव दर्शन के इस त्रिकदर्शन की परम्परा इनकी 15 पीढ़ियों तक चली और कालान्तर में वसुगुप्त ने स्पन्द्शास्त्र लिखा, जिसकी कालांतर में उनके शिष्य सोमानंद ने ईश्वर प्रत्यभिज्ञा सूत्र के माध्यम से विशद व्याख्या थी. आचार्य अभिनवगुप्त ने इसी प्रत्यभिज्ञा सूत्र को जन-जन तक पहुँचाया और श्रीमद्भागवद्गीता के कर्मयोग, जैन, बौद्ध तथा कुछ नास्तिक दार्शनिकों से गहन-विचार विमर्श के काल और समाज के परिप्रेक्ष्य में शैव दर्शन को नया आयाम दिया. आज से लगभग 1000 वर्ष पहले आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से अनेक दार्शनिक मान्यताओं का कौशलपूर्ण समन्वय करते हुए एक ऐसे दर्शन का सूत्रपात किया जिसमें समाज की सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही मान्यताओं से मुक्त होने का आह्वान करते हुए उन्होंने शैवाराधन के मार्ग पर चलने हेतु ब्राह्मण और शूद्र दोनों को बराबरी पर ला खड़ा किया, उन्होंने साधना के मार्ग में जातीय श्रेष्ठता की विसंगति को दुर्र किया और वैरागियों के साथ ही गृहस्थों के लिए भी आराधना को स्वीकार्यता प्रदान की, जो उस युग में स्तुत्य प्रयास माना जाना चाहिए. वे स्वयम भले ही आजन्म ब्रह्मचारी रहे किन्तु अपने शिष्यों के लिए उन्होंने गृहस्थ जीवन से भागकर सन्यास में जाने की अनिवार्यता नहीं रखी, जो उनकी आधुनिक तथा व्यावहारिक दृष्टि का परिचायक है.

आचार्य अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञा दर्शन वस्तुतः शिव की परमसत्ता की अनिर्वचनीयता का प्रतिपादन करता है. उनके अनुसार शिव पूर्ण तत्त्व हैं और उनके आगे किसी अन्य तत्व का कोई अस्तित्व नहीं है, इसे कोई भी नाम या अभिधान नहीं दिया जा सकता. इन परमशिव की चर्चा करते हुए अभिनवगुप्त ने शैव और शाक्त मत की एकता का भी प्रतिपादन किया है. वे उनकी सत्ता को ‘प्रकाश विमर्श सम्वित्सागर’ कहते हैं, प्रकाश उसका शिवरूप है तो विमर्श उसका शक्तिरूप. अतः शक्ति परमशिव की सत्ता की विभिन्न शक्तियों का ही अभिधान है और शिव भी शक्ति से प्रथक न होकर शक्तिमय हैं.
अतः स्पष्ट है कि आचार्य अभिनवगुप्त का शैव दर्शन वस्तुतः प्राणिमात्र के कल्याण, सामाजिक असमानता के उन्मूलन और शैव-शाक्त एकीकरण का पथ प्रशस्त करता है.

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