द कश्मीर फाइल्स में सेल्फ डिस्ट्रक्टिव स्पिसीज भी होने चाहिए थे

 हम भारतवासी, जिनमें से निन्यानबे प्रतिशत लोग कश्मीरी भाषा का क भी नहीं समझते, वे कश्मीरी फाइल्स के कश्मीरी बोलों को देख सुनकर न सिर्फ़ उस दर्द को महसूस कर पा रहे हैं, जिसे कश्मीरी पंडितों ने झेला और अपने ही देश में शरणार्थी बनकर दर दर की ठोकरें खाने को विवश हुए, बल्कि उस नारे रलीव, जलीव, गलीव को भी समझा जो मजहबी कट्टरता का प्रतीक बनकर जन्नत जैसे कश्मीर को दोजख में झोंक देने का प्रतीक बन गया। 

जिस समय यह नृशंस नरसंहार हो रहा था, उस समय मैं किशोरावस्था में ही था और कश्मीर की वास्तविक सच्चाइयों को उस समय मीडिया ने छुपाकर रखा था, फिर भी जो घटनाएं छन छन कर आती थीं, उनसे सिर्फ अंदाज़ भर लग पाता था कि कश्मीर किस तरह जल रहा है। टीकालाल टपलू, बालकृष्ण गंजू, गिरिजा टिक्कू, न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू और भी न जाने कितने निर्दोष उस वहशियाना मानसिकता की भेंट चढ़ा दिए गए जो मजहबी आधार को मनुष्यता से बहुत आगे रखती है।

आज पुनः द कश्मीर फाइल्स देखने के बाद कुछ विचार मन में आ रहे हैं। पहला यह कि इस फिल्म के बाद तथाकथित बॉलीवुड को अब बच्चन पांडे, मैं हूं न जैसी फॉर्मूला फ़िल्मों और सलीम जावेद टाइप के प्रच्छन्न एजेंडे से लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता, दूसरे अब ऐसी कई घटनाओं को हिंदू मुस्लिम तुष्टीकरण की परवाह किए बगैर पर्दे पर उकेरा जा सकेगा, जिन्हें हम भारतीयों को न सिर्फ जानना चाहिए, बल्कि कोशिश करनी चाहिए कि उनसे सीख लेकर आगे बढ़ सकें और यह सुनिश्चित कर सकें कि वे घटनाएं दोबारा घटित न होने पाएं। ब्लैक फ्राइडे और केसरी जैसी फ़िल्मों ने इसकी शुरूआत की थी, लेकिन निस्संदेह द कश्मीर फाइल्स ने इस प्रवृत्ति को शिखर तक पहुंचाया है। इस फिल्म में जितनी भी घटनाएं दिखाई गई हैं, वे सब सत्य घटनाओं पर आधारित हैं और कभी न कभी इनके बारे में हमने पढ़ा या सुना अवश्य था, लेकिन यह सच कितना नृशंस और क्रूर रहा होगा, यह इस फिल्म को देखकर पता चलता है। 

जलावतनी का दर्द और उससे उपजे दर्द भरे गीत बिना किसी शोर शराबे के हमें सोते से जगाते हैं और गिरिजा टिक्कू के साथ हुई नृशंसता को शारदा के साथ घटित होते दिखाकर निर्देशक दर्शकों की सांसों को एकदम जमाकर रख देता है। 

फिल्म अनेक प्रतीकों से भी बात करती है। मसलन, पुष्कर, शिवा, शारदा, ब्रह्मा, विष्णु, हरि नारायण, कृष्णा के बहाने समूची सनातन संस्कृति को दिखाते हुए नीलकंठ के विषपान को पुष्कर नाथ जी के चेहरे से जोड़ देती है। फिल्म में पाकिस्तानी झंडे को हटाकर शिवलिंग को स्थापित करना,  ज्ञान के प्रतीक शारदा देश में शारदा से किए गए वर्ताव, युवा वर्ग का दिग्भ्रम, अपनी मां को भी मार डालने के लिए तैयार रहने वाले बददिमाग बंददिमाग आतंकी और दर्द एवं पीड़ा का अंतहीन सिलसिला, ये सब मिलकर इसे फिल्म मात्र नहीं रहने देते अपितु मनुष्यता की जिजीविषा के सामने आतंकवाद की पराजय की कथा भी कहती है।

पर मुझे इस फिल्म से कुछ शिकायतें भी हैं। जैसे इस फिल्म में कश्मीर में आतंकवाद का जिम्मेदार जेकेएलएफ का चीफ यासीन मलिक क्यों नहीं है, फिल्म में वीपी सिंह की क्रूर खामोशी क्यों नहीं है और फिल्म जगमोहन द्वारा घाटी में शान्ति स्थापित करने की कोशिशों को क्यों नहीं दिखाती? इसके अलावा रोहिंग्या को बसाने का समर्थन और कश्मीरी पंडितों को बसाने का विरोध करने वालों के नकाब क्यों नहीं उतारती! फिल्म में वामपंथी दलों के दुष्प्रचार को सिर्फ एक प्रोफ़ेसर तक सीमित कर दिया है, जबकि उनका एजेंडा फैलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, जिन्हें मैं सेल्फ डिस्ट्रक्टिव स्पिसीज कहता हूं, हर जगह पाए जाते हैं, उनका ज़िक्र भी क्यों नहीं है? 

इन सभी बातों के बावजूद यह फिल्म आपको झकझोरती है, रुलाती है, अपनी जमीन, अपने आसमान, अपनी मातृभूमि के मोल को समझाती है और सीख देती है कि यदि आपके पास सब कुछ है लेकिन अगर आप समर्थ, सचेत तथा शक्तिशाली नहीं हैं तो आप खतरे में हैं। कुल मिलाकर एक ऐसी फिल्म, जिससे कश्मीरी पंडितों के दर्द को दुनिया महसूस कर रही है और कश्मीरी नेताओं को भी उनके दर्द के विषय में बात करने को विवश होना पड़ रहा है, यही इस फिल्म की सफलता है और निर्दोष कश्मीरी पंडितों को सच्ची श्रद्धांजलि भी।

© डॉ. पुनीत बिसारिया

Comments

  1. अति उत्तम लेख पुनीत जी। पर तीन घण्टे में वो सब दिखाना सम्भव नहीं था जिसकी आशा आप कर रहे हैं। विवेक के अनुसार कश्मीर पर ऐसी दर्जनों और फाईल्स खुल सकती हैं। शायद निकट भविष्य में।

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