सियाराम शरण गुप्त जी को जयंती पर पुण्य स्मरण

 जब मैं छोटा बालक हुआ करता था, उस समय मेरी बड़ी बहन

हम सब के थे प्यारे बापू का सस्वर पाठ किया करती थीं। उस समय यह कविता संभवतः उत्तर प्रदेश सरकार के कक्षा 8 के हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल थी। तभी यह कविता मुझे भी कंठस्थ हो गई थी और तब यह नहीं पता था कि इसके सर्जक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के अनुज और प्रख्यात गांधीवादी कवि, कहानीकार, निबंधकार सियारामशरण गुप्त जी हैं। बाद में गुप्त जी को पढ़ने के बाद ज्ञात हुआ कि गांधीवाद ही नहीं वरन् काकी कहानी के द्वारा बाल मनोविज्ञान, जय हिन्द काव्य संग्रह द्वारा देशभक्ति का प्रयाण गीत, देश प्रेम की कविताएं, अनेक कविताओं द्वारा आत्मालाप, विनय गीत, पुत्री रमा की मृत्यु के पश्चात आर्द्रा काव्य के माध्यम से शोक गीत, विश्व शांति, गोद, अंतिम आकांक्षा और नारी उपन्यासों तथा मानुषी लघु कथा कृति के माध्यम से स्त्री मनोविज्ञान की गहरी परख की है। आज पूज्य सियाराम शरण गुप्त जी की 128वीं जयंती पर सुबह आठ बजे उनके पौत्र प्रमोद गुप्त जी, साहित्यकार निहाल चन्द्र शिवहरे, साकेत सुमन चतुर्वेदी जी तथा शहर के गणमान्य नागरिकों एवं अन्य साहित्यकारों के साथ पूज्य सियाराम शरण गुप्त जी और उनके अग्रज राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया और मुख्य वक्ता के रूप में उद्बोधन दिया। 

गुप्त जी के खण्ड काव्य हैं- अनाथ, आर्द्रा, विषाद, दूर्वा दल, बापू, सुनन्दा और गोपिका। मानुषी उनका कहानी संग्रह है,

पुण्य पर्व शीर्षक से उन्होंने नाटक लिखा है और गीता का हिन्दी अनुवाद गीता संवादनाम से किया है। उन्मुक्त गीत उनका गीत नाट्य है। उनके कविता संग्रह में अनुरूपा तथा अमृत पुत्र शामिल हैं। दैनिकी, नकुल, नोआखाली में, जय हिन्द, पाथेय, मृण्मयी तथा आत्मोसर्ग उनके काव्य संग्रह हैं।

अन्तिम आकांक्षा तथा नारी और गोद उनके उपन्यास हैं। झूठ-सच उनका निबंधों का संग्रह है। उन्होंने ईषोपनिषद, धम्मपद और भगवत गीता का काव्यानुवाद भी किया है।

ऐसे चिरगांव, झांसी ही नहीं वरन् हिन्दी साहित्य तथा विश्व साहित्य की अनुपम विभूति पूज्य सियाराम शरण गुप्त जी की 128वीं जयंती पर कृतज्ञतापूर्ण स्मरण के साथ विनम्र श्रद्धांजलि।

#जय_जय_भारतवर्ष_हमारे कविता 

जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय जय हिंद, हमारे हिंद, विश्व-सरोवर के सौरभमय प्रिय अरविंद, हमारे हिंद! 

तेरे स्रोतों में अक्षय जल खेतों में है अक्षय धान, तन से मन से श्रम-विक्रय से, है समर्थ तेरी संतान। 

सबके लिए अभय है जग में जन-जन में तेरा उत्थान, वैर किसी के लिए नहीं है, प्रीति सभी के लिए समान। 

गंगा-यमुना के प्रवाह हे अमल अनिंद्य , हमारे हिंद, जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय-जय हिंद, हमारे हिंद! 

तेरी चक्रपताका नभ में ऊँची उड़े सदा स्वाधीन, परंपरा अपने वीरों की शक्ति हमें दे नित्य नवीन। 

सबका सुहित हमारा हित है, सार्वभौम हम सार्वजनीन; अपनी इस आसिंधु धरा में नहीं रहेंगे होकर हीन। 

ऊँचे और विनम्र सदा के हिमगिरि विंध्य, हमारे हिंद, जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय-जय हिंद, हमारे हिंद! 

#प्यारे_बापू कविता

सारे जग से न्यारे बापू

जगमग-जगमग तारे बापू

भारत के उजियारे बापू

लगते तो थे दुबले बापू

थे ताक़त के पुतले बापू

नहीं कभी डरते थे बापू

जो कहते करते थे बापू

सदा सत्य अपनाते बापू

सबको गले लगाते बापू

हम हैं एक सिखाते बापू

सच्ची राह दिखाते बापू

चरखा खादी लाए बापू

हैं आज़ादी लाए बापू

कभी न हिम्मत हारे बापू

आँखों के थे तारे बापू

#घनाह्लाद कविता 

पावस का यह घनघटापुंज

कर स्निग्ध धरा का नव निकुंज

बरसा बरसा कर सुरसधार

करता है नभतल में विहार।

भरकर नव मौक्तिकबिन्दु माल

वसुधा का यह अंचल विशाल

आनंद विकम्पित है अधीर;

क्रीड़ारत है सुरभित समीर।

नव-सूर्य-करोज्ज्वल, रजतगात,

झरझर कर यह निर्झर प्रपात

कर उथलित प्रचुर प्रमोदपान

करता है कलकल-कलित गान।

रह रह कर यह पिक बार-बार

कर रहा मधुरिमा का प्रसार

है हरित धरा का हेमगात्र

भर ओतप्रोत प्रमोदपात्र।

उस प्रमद पात्र का सुरस धन्य

है छलक रहा अनुपम अन्य।

पर इस उर में यह घनाह्लाद

धारण कर लेता है विषाद।

#काकी

उस दिन बड़े सबेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा – घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी – उमा – एक कम्बल पर नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए भूमि-शयन कर रही हैं, और घर के सब लोग उसे घेरकर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं।

लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे तब श्यामू ने बड़ाउपद्रव मचाया। लोगों के हाथों से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा। बोला – “काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहाँ लिये जा रहे हो? मैं न जाने दूँ।”

लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाये। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही।

यद्दापि बुद्धिमान गुरुजनों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गई है, परन्तु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका। आस-पास के अन्य अबोध बालकों के मुँह से ही वह प्रकट हो गया। यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं, ऊपर राम के यहाँ गई है। काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमश: शांत हो गया, परन्तु शोक शांत न हो सका।वर्षा के अनन्तर एक ही दो दिन में पृथ्वी के ऊपर का पानी अगोचर हो जाता है, परन्तु भीतर ही भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अन्तस्तल में वह शोक जाकर बस गया था। वह प्राय: अकेला बैठा-बैठा, शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता।

एक दिन उसने ऊपर एक पतंग उड़ती देखा। न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा। विश्वेश्वर के पास जाकर बोला – “काका मुझे पतंग मँगा दो।”

पत्नी की मृत्यु के बाद से विश्वेश्वर अन्यमनस्क रहा करते थे। “अच्छा,मँगा दूँगा।” कहकर वे उदास भाव से और कहीं चले गये।

श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कण्ठित था। वह अपनी इच्छा किसी तरह रोक न सका। एक जगह खूँटी पर विश्वेश्वर का कोट टँगा हुआ था। इधर-उधर देखकर उसने उसके पास स्टूल सरकाकर रक्खा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोलीं। उनमें से एक चवन्नी का आविष्कार करके तुरन्त वहाँ से भाग गया।

सुखिया दासी का लड़का – भोला – श्यामू का समवयस्क साथी था। श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा – “अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मँगा दो। देखो, खूब अकेले में लाना, कोई जान न पावे।”

पतंग आई। एक अँधेरे घर में उसमें डोर बाँधी जाने लगी। श्यामू ने धीरे से कहा, “भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूँ।”

भोला ने सिर हिलाकर कहा – “नहीं, किसी से नहीं कहूँगा।

श्यामू ने रहस्य खोला। कहा – “मैं यह पतंग ऊपर राम के यहाँ भेजूँगा।इसे पकड़कर काकी नीचे उतरेंगी। मैं लिखना नहीं जानता, नहीं तो इस पर उनका नाम लिख देता।”

भोला श्यामू से अधिक समझदार था। उसने कहा – “बात तो बड़ी अच्छी सोची, परन्तु एक कठिनता है। यह डोर पतली है। इसे पकड़कर काकी उतर नहीं सकतीं। इसके टूट जाने का डर है। पतंग में मोटी रस्सी हो, तो सब ठीक हो जाय।”

श्यामू गम्भीर हो गया! मतलब यह, बात लाख रुपये की सुझाई गई है। परन्तु कठिनता यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मँगाई जाय। पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-मया के जला आये हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ नहीं देंगे। उस दिन श्यामू को चिन्ता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आई।

पहले दिन की तरकीब से दूसरे दिन उसने विश्वेश्वर के कोट से एक रुपया निकाला। ले जाकर भोला को दिया और बोला – “देख भोला, किसी को मालूम न होने पाये। अच्छी-अच्छी दो रस्सियाँ मँगा दे। एक रस्सी ओछी पड़ेगी। जवाहिर भैया से मैं एक कागज पर ‘काकी’ लिखवा रक्खूँगा। नाम की चिट रहेगी, तो पतंग ठीक उन्हीं के पास पहुँच जायेगी।”

दो घण्टे बाद प्रफुल्ल मन से श्यामू और भोला अँधेरी कोठरी में बैठे-बैठे पतंग में रस्सी बाँध रहे थे। अकस्मात शुभ कार्य में विघ्न की तरहउग्ररूप धारण किये विश्वेश्वर वहाँ आ घुसे। भोला और श्यामू को धमकाकर बोले – “तुमने हमारे कोट से रुपया निकाला है?”

भोला सकपकाकर एक ही डाँट में मुखबिर हो गया। बोला – “श्यामू भैया ने रस्सी और पतंग मँगाने के लिए निकाला था।” विश्वेश्वर ने श्यामू को दो तमाचे जड़कर कहा – “चोरी सीखकर जेल जायेगा? अच्छा, तुझे आज अच्छी तरह समझाता हूँ।” कहकर फिर तमाचे जड़े और कान मलने के बाद पतंग फाड़ डाला। अब रस्सियों की ओर देखकर पूछा – “ये किसने मँगाई?”

भोला ने कहा – “इन्होंने मँगायी थी। कहते थे, इससे पतंग तानकर काकी को राम के यहाँ से नीचे उतारेंगे।”

विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गये। उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी। उस पर चिपके हुए कागज पर लिखा हुआ था – “काकी।”

© प्रो. पुनीत बिसारिया

अध्यक्ष हिन्दी विभाग

बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी

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