ते जड़जीव निजात्मक घाती, जिन्हहिं न रघुपति कथा सोहाती
कवित विवेक एक नहिं मोरे, सत्य कहहुँ लिख कागद कोरे।
उक्त पंक्तियां लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी को उनके नालायक परवर्ती जिस प्रकार संबोधित कर रहे हैं, उससे दुःख होता है। कवि युगदृष्टा होता है और अपने युग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सर्जना करता है। अगर उसे 500 साल बाद का समाज अपने दौर की कसौटी पर कसना चाहेगा तो तुलसी ही नहीं नाथ, सिद्ध, जगनिक, चंदबरदाई, कबीर, सूर, केशव, बिहारी, यहां तक कि भारतेंदु, निराला प्रभृति प्रायः सभी कवि काल बाह्य हो जाएंगे।
तनिक हम तुलसी युगीन परिस्थितियों को देखें कि वे कौन से हालात थे, जिनमें विपरीत सामाजिक परिस्थितियों, अपने प्रति हुए घोर अत्याचारों के बाद भी वे सामाजिक एक्य के लिए कार्य करते हैं। श्रीराम की लीलाओं के मंचन के माध्यम से समाज को जोड़ते हैं, ऐसे राम राज्य की संकल्पना करते हैं, जिसमें स्त्री, पुरुष, दलित, दमित कोई भी अबुध या लक्षणहीन न हो। वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की पुनीत कथा भगवान शिव से पार्वती को सुनवाते हैं और इस प्रकार शैव, शाक्त और वैष्णव को एक कर देते हैं। उनकी कथा वास्तव में वह है जिसे काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ को सुनाया था, जिन्हें आज का तथाकथित आधुनिक समाज सवर्ण तो नहीं कहेगा -
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।
अर्थात यह पवित्र कथा भगवान् के परम पद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी।
जो मूर्ख मतिमंद आज मिथ्या प्रवाद कर रहे हैं, उनके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्वयं माता पार्वती के मुंह से कहलवाया है -
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥
ते जड़जीव निजात्मक घाती। जिन्हहिं न रघुपतिकथासोहाती।।
अर्थात जगत में कान वाला ऐसा कौन है, जिसे श्री रघुनाथजी के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्री रघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करने वाले हैं।
।।इति।।
© प्र पुनीत बिसारिया
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