सर्वोच्च बलिदान के अप्रतिम शिखर लाला हरदौल की पावन जीवन गाथा है ‘लाला हरदौल’

 विख्यात फिल्म निर्देशक और लेखक भाई हेमंत वर्मा ने बुंदेलखंड के लोक देवता वीरवर हरदौल के पावन जीवन चरित्र को केंद्र में रखते हुए लाला हरदौल शीर्षक से उपन्यास लिखा है, जो प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। बेहद जीवंत, प्रभावशाली भाषा शैली से सज्जित इस उपन्यास को यदि आप एक बार पढ़ना शुरू करेंगे तो इसमें डूब जाने की गारंटी है। गत वर्ष इसकी जो भूमिका लिखी थी, उसका अविरल रूप हेमंत जी को पुनः बधाई के साथ आप सबके समक्ष प्रस्तुत है -

सर्वोच्च बलिदान के अप्रतिम शिखर लाला हरदौल की पावन जीवन गाथा है ‘लाला हरदौल’हि

साहित्य मनुष्यता के विविध स्वरूपों के प्रेक्षण की प्रयोगशाला है और जब इसमें ऐतिहासिक घटनाओं का समाहार हो जाता है तो यह अतीत के प्रेरक व्यक्तित्वों के चरित्रांकन के माध्यम से वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए सबक देने तथा उन व्यक्तित्वों से प्रेरणा प्राप्त करने का सशक्त माध्यम बन जाता है. हिन्दी साहित्यकाश में ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण लेखक उपन्यासकार हुए हैं, जिन्होंने अतीत के गौरव गान के द्वारा साहित्य कोश की श्रीवृद्धि करते हुए अनेक प्रेरक व्यक्तियों महापुरुषों की गाथाओं को साहित्य के माध्यम से जनसामान्य के समक्ष लाने का महती कार्य किया है. जयशंकर प्रसाद एवं मोहन राकेश ने अपने अनेक नाटकों द्वारा, उपन्यास सम्राट वृंदावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, नरेंद्र कोहली प्रभृति लेखकों ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से इतिहास की अनेक विस्मृतप्राय विभूतियों को प्रकाश में लाने का कार्य किया है. 

बुन्देलखण्ड अपरिमित शौर्य एवं आत्मबलिदान की वीरोचित परंपरा के लिए लोकविश्रुत रहा है. अतीत में यहाँ के अनेक नर-नारियों ने अपने वीरतापूर्ण कर्तृत्व के द्वारा भारतीय परंपरा के गौरवशाली इतिहास में नगीने जड़ने का कार्य किया है. यहाँ की धरती विंध्येलखण्ड नरेश बुन्देलखण्ड के संस्थापक महाराज हेमकरण सिंह, गढ़कुंडार नरेश महाराज खेत सिंह खँगार, पन्ना नरेश महाराज छत्रसाल, उनके पिता वीरवर चंपतराय, महान योद्धा आल्हा-ऊदल, महाप्रतापी वीरसिंह जू देव, क्रांति की अमर ज्योति झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई, वीरांगना लक्ष्मीबाई के सहयोगी झलकारीबाई और गुलाम गौस खाँ, रणचंडी की साक्षात प्रतिमा महारानी दुर्गावती, स्वातंत्र्यवीर पण्डित परमानन्द, चंद्रशेखर आजाद के सहयोगी भगवानदास माहौर एवं मास्टर रुद्रनारायण, विश्वविजयी गामा पहलवान आदि के शौर्य की गवाह रही है. मुगलों से जमकर लोहा लेने और उन्हें दक्षिण की ओर न बढ़ने देने तथा अंग्रेज़ों से संग्राम करने में इस माटी की भूमिका किसी से छुपी नहीं रही है. बुन्देलखण्ड के ऐसे ही एक वीर पुरुष वीरवर हरदौल हैं, जिन्हें यहाँ के लोकदेवता की प्रतिष्ठा प्राप्त है. वीरवर हरदौल ने अपने शौर्य तथा पराक्रम से मुगलों के दांत खट्टे कर दिए थे और राजसी षड्यन्त्रों का शिकार होने के उपरांत अपनी भाभी के चरित्र को स्वर्णोज्ज्वल बनाए रखने तथा प्रवाद को खत्म करने के लिए उनके ही  हाथों से जानबूझकर विष का प्याला पी लिया था. ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में अन्यत्र विरल है. ऐसे महान वीरता की प्रतिमूर्ति, आत्मोत्सर्ग के शिखर पुरुष वीरवर हरदौल की  जीवन गाथा को मित्रवर हेमंत वर्मा ने लिपिबद्ध कर उपन्यास का रूप देते हुए हमारे सामने प्रस्तुत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है.     

हेमंत वर्मा ने अपने उपन्यास में युद्ध  के दृश्यों को अत्यंत कुशलता से उकेरा है. इन दृश्यों की सर्जना करते हुए वे उस काल की घटना का मानो शब्द चित्र अंकित कर देते हैं. ऐसा ही एक उदाहरण दृष्टव्य है- “कुछ देर बाद ही वातावरण में युद्ध के नगाड़ों और रणभेरी की आवाज गूंजने लगी और उसके पश्चात् आरम्भ हुआ मौत का तांडव. मुगलों की तरफ से फौजी अल्लाह-ओ-अकबर और ओरछा के सैनिक हर-हर-महादेव के नारे लगाते हुई एक दूसरे से भिड़ गए. दोनों तरफ के जवान अपनी तलवारें खनखनाते हुए एक दूसरे के खून के प्यासे हुए जा रहे थे. दोनों तरफ से बंदूकें आग उगल रही थीं. हरदौल अपने घोड़े पर सवार तूफ़ान की तरह दुश्मन की सेना को नेस्तनाबूद कर रहे थे. जिस तरफ से भी उनका घोड़ा निकलता, वहां की भूमि शत्रुओं के खून से लाल हो जाती. बिजली की तरह चमकती उनकी तलवार जब भी किसी दुश्मन पर वार के लिए उठती तो वह आदमी ही दुनिया से उठ जाता. हरदौल को अपने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते देख उनकी सेना का मनोबल अपनी चरम सीमा पर था.”

हेमंत वर्मा ने वीरवर हरदौल के प्रति कलुषित भावना भरे जाने के उपरांत उनके भाई ओरछा नरेश महाराज जुझार सिंह की मनःस्थिति का भी अत्यंत सजीव अंकन किया है, जिसमें विवरणात्मकता के साथ-साथ रसात्मकता भी विद्यमान है- 

“प्रतीक राय की बातों से महाराज को अपना जीवन अंधकारमय होता हुआ नज़र आ रहा था, शायद यही वजह थी कि उन्हें रोशनी अच्छी नहीं लग रही थी और उन्होंने अपने शिविर को भी अंधकारयुक्त कर लिया था. अपने बिस्तर पर लेटने के पश्चात भी नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी. रह-रह कर प्रतीक राय की बात उनके दिल-ओ-दिमाग पर हथौड़े की तरह प्रहार कर रही थी. प्रतीक राय द्वारा कही आज की बात ही उनके दिल में उथल-पुथल नहीं मचा रही थी बल्कि महारानी और हरदौल की घनिष्ठता के और भी कई दृश्य उनके मानस पटल पर उभर कर उनके सीने में नश्तर चुभा रहे थे. इस समय उन्हें भोजनशाला का वह दृश्य भी स्मरण हो रहा था, जब महारानी साहिबा ने उनके समक्ष चांदी की थाली में भोजन परोसा था और हरदौल को सोने  की थाली में, जबकि एक राजा होने के नाते स्वर्ण थाल में भोजन उन्हें परोसा जाना चाहिए था. अब उनको उस बात की सच्चाई समझ आ रही थी.”

महाराज जुझार सिंह के कहने पर महारानी चंपावती द्वारा अपने पुत्र समान देवर को खीर में विष मिलाकर देने को विवश होने की घटना को लेखक ने बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत किया है. वस्तुतः लेखक को कथा के मार्मिक स्थलों की गहरी पहचान है, इसीलिए ऐसे दृश्यों को पिरोते हुए उन्होंने करुणा और शोक के सजीव चित्र  अंकित कर दिए हैं-

“जब हरदौल ने अपनी थाली से खीर की कटोरी उठाई तो वहां उपस्थित हर किसी का मन यह कह रहा था कि महाराज लाला को विषपान करने से रोक लेंगे, उनके हाथ से विष की कटोरी छीन लेंगे, लेकिन जुझार सिंह अपने निर्णय पर अडिग थे. कटोरी हाथ में लेकर जब हरदौल ने अपने बड़े भाई की ओर देखा तो महाराज ने अपनी निगाहें झुका लीं. शायद उनमें हरदौल जैसे मातृभक्त से आँखें मिलाने की हिम्मत नहीं थी. हरदौल मन ही मन मुस्कुराये और अपनी भाभी माँ की ओर देखकर एक झटके में कटोरी की सारी खीर पी गए. यह देखकर वहां उपस्थित लोग स्तब्ध रह गए. महाराज ने हरदौल को विषपान करने से नहीं रोका था. अपने स्वामी को मीराबाई के रास्ते पर चलता देख हिमांचल कुंवरि गश खाकर वहीं गिर पड़ी. महारानी चम्पावती हरदौल को सीने से लगाकर विलाप करने लगी थीं, ‘यह हमने क्या कर दिया, अपने ही हाथों अपनी औलाद को विष दे दिया. ममत्व के नाम पर हम कलंक हैं.  हे रामराजा, हमें भी इस स्वार्थी  दुनिया से उठा ले, अब हम भी जीना नहीं चाहते.”

लेखक ने अनेक स्थान पर सूत्र शैली में अपनी बात कही है. अनेक बार सूत्र शैली में कही गई बात अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली होती है. वीरवर हरदौल की अन्त्येष्टि के लिए जाते समय जुझार सिंह की मनोदशा का अंकन उन्होंने इसी शैली में किया है- 

“अगर इंसान किसी  भी कदम को उठाने से पहले उसके अंत का विचार कर ले तो उसे न तो किसी  प्रकार का दुःख सहना पड़ेगा और न उसे पश्चाताप की आवश्यकता होगी, लेकिन हम मात्र प्रारम्भ के बारे में सोचते हैं, अंत के बारे में सोचते ही नहीं, इसलिए अंत के उपरांत का जीवन कष्टदायी हो जाता है. कुछ ऐसा ही हाल इस समय महाराज जुझार सिंह का था.”

तत्पश्चात बहन कुंजावती की पुत्री के विवाह में हरदौल का स्वयं आकर भात भरना लोक में विख्यात है. इस घटना का भी उन्होंने अत्यंत मार्मिक किन्तु श्रद्धास्पद चित्र खींचा है-

“जैसी कि  कुंजावती ने जिद पकड़ रखी थी, अपनी पुत्री का भात हरदौल से ही भरवाएगी, सो विवाह से एक सप्ताह पहले भात न्योतने के लिए वह ओरछा पहुंची, किन्तु वह राजमहल नहीं गई, वह पहुंची उस जगह पर जहाँ हरदौल का अंतिम संस्कार किया गया था और अब जहाँ पर उनकी समाधि बनी हुई थी, जिसके चारों और खंभे खड़े करके एक छतरी का रूप दे दिया गया था. 

वहां पहुँचकर कुंजावती रोते हुए जोर-जोर से एक खंभे पर अपना सर पटकते हुए बोली, ‘जब तक मेरी पुत्री के विवाह में आकर भात की रस्म पूरी करने का वचन नहीं दोगे, मैं यूं ही अपना सर पटक-पटक कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लूंगी.’ उनको ऐसा करते देख जब उनके सेवक उन्हें रोकने के लिए  उनके पास आये तो कुंजावती ने उन्हें धमकाकर दूर भगा दिया.

कहते हैं कि खंभे पर सिर पटकते-पटकते जब कुंजावती के माथे से रक्त बहने लगा तो खंभे में से आवाज आई, ‘अपने आप को जख्मी मत कर बहन, मैं अपनी भांजी के विवाह में भात भरने अवश्य आऊंगा.’ इसके पश्चात एक अदृश्य व्यक्ति के साथ कुंजावती ने वे सारी रस्में कीं जो भात न्योतने के दौरान की जाती हैं.  कुंजा देख रही थी कि  कैसे हरदौल बारातियों के खाने में हाथ में लौटा लिए घी परोस रहा था. कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि बारातियों और घरातियों को मात्र एक हाथ दिखाई दे रहा था, जो बारातियों की थाली में घी डाल रहा था. बात चाहे जो भी हो, बात यहाँ विश्वास की है. कुंजावती को विश्वास  था कि उसका भाई भात भरने अवश्य आएगा और ईश्वर ने किसी न किसी रूप में उसके विश्वास को बनाये रखा.” 

बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक मर्मस्पर्शी-तलस्पर्शी हरदौल कथा को हेमंत वर्मा ने जिस तन्मयता और  भावात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह इस उपन्यास का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष है. उन्होंने ऐतिहासिक प्रसंगों में कुछ काल्पनिक पात्रों को इतनी कुशलता के साथ जोड़ा है कि वे भी इतिहाससम्मत चरित्र के रूप में सजीव होते दिखते हैं. यह उनकी रचनात्मकता की सफलता है. मैं हेमंत वर्मा को उत्कृष्ट उपन्यास लेखन के लिए तथा बुन्देलखण्ड के अमर माने जाने वाले लोकदेवता वीरवर लाला हरदौल की कथा को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि साहित्य संसार उनकी बहुमूल्य कृति का यथेष्ट स्वागत करेगा.


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