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Showing posts from 2016

स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ

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स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर पेश हैं हिन्दी सिनेमा के ऐसे अमर गीत, जिनसे हम सब किसी न किसी क्षण पर आंदोलित होते रहे हैं. स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को नमन करते हुए पेश हैं ये गीत- 1- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है 2- आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की 3- मेरे देश की धरती 4-हर करम अपना करेंगे 5- नन्हा मुन्ना राही हूँ 6- छोड़ो कल की बातें 7- इन्साफ की डगर पर 8- दे दी हमे आजादी बिना 9- ऐ वतन ऐ वतन 10- मेरा रंग दे बसंती चोला 11- आरम्भ है प्रचंड बोल 12- नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मैं क्या है 13- भारत हमको जान से प्यारा है 14- अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों 15- है प्रीत जहाँ की रीत सदा 16- जिस देश में गंगा बहती है 17- कदम कदम बढाये जा 18- जहाँ डाल डाल पर सोने 19- ऐ मेरे प्यारे वतन 20- जय जननी ने भारत माँ 21- आई लव माय इंडिया 22- ऐसा देश है मेरा 23- अपनी आजादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नही 24- हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के 25- सरफरोशी की तमन्ना 26- कन्धों से मिलते है कंधे 27- यह देश है वीर जवानों का 28- मेरे दुश्मन मेरे भाई 29- यह जो देश है मेरा 30- बढ...

बकवास फिल्म है मोहेन जोदारो

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र कड़ी हैं, जिनके सपाट अभिनय ने फिल्म को भारी नुकसान पहुँचाया है. ऋतिक रोशन का दमदार अभिनय इस फिल्म को उठाने का प्रयास करता है लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इस फिल्म के कुछ सकारात्मक पक्ष भी हैं, जैसे सिन्धु घाटी की सभ्यता को उसके उत्खनित स्वरुप में दिखाना और वस्त्र विन्यास तथा सामाजिक जीवन की परख करना, जिसमें आशुतोष की प्रतिभा का चरम दीखता है, लेकिन गीत-संगीत, संवाद और 'कदाचित' सांस्कृतिक पक्ष के अंकन की दुर्बलता ने एक बेहद शानदार विषय को पूरी तरह से धर्मेन्द्र की धरमवीर मार्का या फिर अमरीशपुरी की टिपिकल खलनायकत्व वाली फिल्म में बदल डाला है. अगर आशुतोष सही पात्र चयन और पटकथा एवंगीत-संगीत पर ध्यान दे देते तथा बड़े नामों का मोह छोडकर किसी अन्य गीतकार और संगीतकार को अवसर देते तो शायद बेहतर नतीजे आ सकते थे. मैं व्यक्तिगत तौर पर इस फिल्म से काफी निराश हुआ हूँ. मेरी ओर से इस फिल्म को 5 में सिर्फ दो स्टार.

हिन्दी सिनेमा में चित्रित नए सरोकार

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-  पुनीत बिसारिया   नयी शताब्दी का सिनेमा अपनी नवोन्मेषी दृष्टि, मौलिक संकल्पना और कुछ नये सवाल लेकर हमारे बीच उपस्थित है. नयी शताब्दी ने सिनेमा को नयी ऊर्जा, नये विषय, नये संस्कार दिये हैं. नयी सहस्राब्दि से पूर्व तक हिन्दी सिनेमा कुछ ख़ास किस्म के फॉर्मूलों तक केन्द्रित रहा करता था और वे फ़ॉर्मूले ही फिल्मों की सफलता की गारंटी हुआ करते थे, जैसे- प्रेम या रोमांस, जो कमोबेश आज भी किसी फिल्म को सफल बनाने की क्षमता रखता है अथवा नायक-खलनायक भिड़ंत या फिर प्रेम त्रिकोण या फिर भाइयों का आपसी प्यार, हिन्दू-मुस्लिम दोस्ती खोया-पाया या धार्मिक अथवा ऐतिहासिक विषय. इनसे हटकर जो विषय लिए जाते थे,  उन विषयों पर फ़िल्में बनाना जोखिम का काम माना जाता था और प्रायः फ़िल्मकार ऐसे जोखिम लेने से बचते थे. जो फिल्मकार ऐसे जोखिम ले लिया करते थे, उनकी फिल्मों को समान्तर सिनेमा या कलात्मक सिनेमा के सांचे में रखकर कुछ चुनिन्दा दर्शकों के लिए देखने को सीमित कर दिया जाता था. इसका नतीजा यह होता था कि बॉक्स ऑफिस या कमाई की दृष्टि से ये फ़िल्में ज्यादातर घाटे का सौदा साबित होती थीं और इन्हें आ...

इब तो वाकई सुल्तान से

पिछले कुछ सालों से खेल आधारित फिल्मों का लगातार हिंदी सिनेमा में चलन दिख रहा है। यह ट्रेंड लगान की सफलता से शुरू होकर सुल्तान तक लगातार जारी है। सुल्तान फ़िल्म की रिलीज़ की टाइमिंग बहुत अच्छी है क्योंकि अगले महीने से रियो ओलम्पिक शुरू हो रहे हैं और भारतीय कुश्ती की दावेदारी को यह फ़िल्म आगे बढ़ा सकती है। यह फ़िल्म कई दृष्टि से 2016 की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। कुश्ती के अलावा हरियाणा में गिरते कन्या भ्रूण अनुपात की समस्या को उठाना, मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण, एक खिलाड़ी युगल के जीवन के झंझावात, प्रेमी के प्रेम का उत्ताप और प्रेम के कारण एक खिलंदड़ का गम्भीर खिलाड़ी में बदलना, एक भावुक पति, प्रेमी और पिता ये सब शेड्स दिखाने में सलमान पूरी तरह से सफल रहे हैं। इस फ़िल्म को देखते समय नायक के चरित्र के विकास के साथ मुझे गोस्वामी तुलसीदास और हीर की याद आ रही थी, जिसमें एक पत्नी की प्रताड़ना से आज भी स्मरणीय है तो दूसरे की प्रेम की कसमें आज भी खाई जाती हैं। फ़िल्म में अब्बास अली ज़फ़र का निर्देशन और विशाल शेखर का संगीत उत्कृष्ट है, फरहा का नृत्य निर्देशन भी अच्छा कहा जाना चाहिए। इस फ़िल्म की एडि...

इब तो वाकई सुल्तान से

पिछले कुछ सालों से खेल आधारित फिल्मों का लगातार हिंदी सिनेमा में चलन दिख रहा है। यह ट्रेंड लगान की सफलता से शुरू होकर सुल्तान तक लगातार जारी है। सुल्तान फ़िल्म की रिलीज़ की टाइमिंग बहुत अच्छी है क्योंकि अगले महीने से रियो ओलम्पिक शुरू हो रहे हैं और भारतीय कुश्ती की दावेदारी को यह फ़िल्म आगे बढ़ा सकती है। यह फ़िल्म कई दृष्टि से 2016 की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। कुश्ती के अलावा हरियाणा में गिरते कन्या भ्रूण अनुपात की समस्या को उठाना, मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण, एक खिलाड़ी युगल के जीवन के झंझावात, प्रेमी के प्रेम का उत्ताप और प्रेम के कारण एक खिलंदड़ का गम्भीर खिलाड़ी में बदलना, एक भावुक पति, प्रेमी और पिता ये सब शेड्स दिखाने में सलमान पूरी तरह से सफल रहे हैं। इस फ़िल्म को देखते समय नायक के चरित्र के विकास के साथ मुझे गोस्वामी तुलसीदास और हीर की याद आ रही थी, जिसमें एक पत्नी की प्रताड़ना से आज भी स्मरणीय है तो दूसरे की प्रेम की कसमें आज भी खाई जाती हैं। फ़िल्म में अब्बास अली ज़फ़र का निर्देशन और विशाल शेखर का संगीत उत्कृष्ट है, फरहा का नृत्य निर्देशन भी अच्छा कहा जाना चाहिए। इस फ़िल्म की एडि...

आचार्य अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन की वर्तमान समय में प्रासंगिकता

कश्मीर चिरकाल से भारत का भाल होने के साथ-साथ भारत का ज्ञान चक्षु भी है. शारदा देश के नाम से विख्यात यह क्षेत्र शैव, बौद्ध, तन्त्र, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सिद्ध, सूफी आदि परम्पराओं का क्रीड़ास्थल रहा है. मान्यता है कि कलिकाल में शैव दर्शन का लोप हो गया था, जिसे स्वयम भगवान शिव की प्रेरणा से दुर्वासा ऋषि ने पुनर्स्थापित किया और दुर्वासा ने अपने तीन मानस पुत्रों त्र्यम्बक, अमर्दक और श्रीनाथ को शिवसूत्र के तीन भेदों क्रमशः अभेदवाद, भेदवाद और भेदाभेद्वाद का ज्ञान दिया. शैव दर्शन के इस त्रिकदर्शन की परम्परा इनकी 15 पीढ़ियों तक चली और कालान्तर में वसुगुप्त ने स्पन्द्शास्त्र लिखा, जिसकी कालांतर में उनके शिष्य सोमानंद ने ईश्वर प्रत्यभिज्ञा सूत्र के माध्यम से विशद व्याख्या थी. आचार्य अभिनवगुप्त ने इसी प्रत्यभिज्ञा सूत्र को जन-जन तक पहुँचाया और श्रीमद्भागवद्गीता के कर्मयोग, जैन, बौद्ध तथा कुछ नास्तिक दार्शनिकों से गहन-विचार विमर्श के काल और समाज के परिप्रेक्ष्य में शैव दर्शन को नया आयाम दिया. आज से लगभग 1000 वर्ष पहले आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से अनेक दार्शनिक मान...

आपातकाल के 41 बरस

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यूँ तो पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने सन 1962 में चीन से युद्ध के समय तथा इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय भी आपातकाल लगाया था किन्तु इन दो आपातकालों की वैधता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जाता क्योंकि उस समय आपातकाल लगाया जाना आवश्यक था क्योंकि देश बाहरी दुश्मन से युद्ध लड़ रहा था लेकिन 25-26 जून की मध्य रात्रि को तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और अपने बिगड़ैल पुत् र संजय गांधी के कहने पर अपनी कुर्सी बचाने के लिए जो आपातकाल देशवासियों पर थोपा उसके लिए देश उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। दरअसल यह आपातकाल इसलिए लगाया गया था क्योंकि इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्भीक और निष्पक्ष न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध रायबरेली से चुनाव लड़े राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए इंदिरा गांधी को चुनाव में हेराफेरी का दोषी पाया और उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी। इसके बाद उच्चतम न्यायालय में भी न्यायमूर्ति वी आर कृष्ण अय्यर ने इस सजा को बरकरार रखा।  इंदिरा ने इसके खिलाफ उच्च...

आदिवासी समाज का सच

आदिवासी समाज वास्तव में एक ऐसा समाज है, जिसने अपनी परम्पराएं, संस्कार और रीति-रिवाज संरक्षित रखे है। हॉ यह बात सही है कि अपने जल, जंगल-जमीन में सिमटा यह समाज शैक्षिक आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के कारण राष्ट्र की विकास यात्रा के लाभों से वंचित है। डॉ. रमणिका गुप्ता आदिवासियों के विषय में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए लिखती हैं, ”यह सही है कि आदिवासी साहित्य अक्षर से वंचित रहा, इसलिए वह उसकी कल्पना और यथार्थ को लिखित रूप से न साहित्य में दर्ज कर पाया और न ही इतिहास में। हॉ लोकगीतों, किंवदन्तियों, लोककथाओं तथा मिथकों के माध्यम से उसकी गहरी पैठ है।“ यह सच है कि दलित तबका शिक्षा, विकास तथा धनार्जन के मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया, किन्तु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए पहला विद्रोह तिलका मांझी ने सन् 1824 में में उस समय किया था, जब उन्होंने अंग्रेज़ कमिश्नर क्लीवलैण्ड को तीर से मार गिराया था। सन् 1765 में खासी जनजाति ने अंग्रेज़ों के विरूद्ध विद्रोह किया था। सन् 1817 ई. में खानदेश आन्दोलन, सन् 1855 ई. में संथाल विद्रोह तथा सन् 1890 में बिरसा मुंडा का आन्दोलन अंग...

हिन्दी सिनेमा में गाँव और लोकजीवन

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हिन्दी सिनेमा में गाँव और लोकजीवन डॉ. पुनीत बिसारिया सिनेमा अपनी सम्पूर्णता में जितना अधिक जनोन्मुखी माध्यम है, उतना कोई अन्य माध्यम नहीं है, कारण यह कि यह जनभावनाओं तक सीधे अपनी पैठ बना लेता है और मजे की बात यह कि अभिनयकर्त्ता दूर होकर भी दर्षक के बेहद करीब होते हैं, बषर्ते उनका अभिनय सहज और प्रभावषाली हो। दर्षक ऐसे पात्रों को अपने बीच पाता है और उनके द्वारा अभिनीत भावनाओं से एकाकार होकर तदनुरूप आचरण करने लगता है। हमारे पास ऐसे अनेक सकारात्मक एवं नकारात्मक उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि एक फिल्म विषेष ने एक व्यक्ति के जीवन को बदलकर रख दिया। महात्मा गाँधी के जीवन पर ‘सत्य हरिष्चन्द्र’ फिल्म का जो असर हुआ था, वह उनके सम्पूर्ण जीवन काल में उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता रहा था। उन्होंने इस फिल्म से ही प्रभावित होकर सत्य बोलने का संकल्प लिया था, जिसे उन्होंने आजीवन अपने आचरण में उतारा। ‘दो आँखें बारह हाथ’ तथा ‘जिस देष में गंगा बहती है’ फिल्में देखकर कई अपराधियों का हृदय परिवर्तन हो गया था और उन्होंने अपराध से तौबा कर ली थी। ऐसे ही कई फिल्मों के नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मि...