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राम आदर्श के सुमेरु हैं, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण के जाज्वल्यमान प्रतीक हैं, मर्यादित आचरण के विग्रह हैं तथा धर्माचरण के संवाहक हैं| यही कारण है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन जीवनगाथा देशकाल का अतिक्रमण करते हुए देश देशान्तर तक युगों-युगों से व्याप्त होकर मानवता को यथेष्ट आचरण की सीख दे रही है| अस्तु, स्वाभाविक है कि राम कथा के विविध दृष्टान्तों का देश-विदेश के विचारकों एवं कवि-लेखकों पर भी प्रभाव पड़े| इंडोनेशिया, थाईलैंड, रूस, मॉरीशस, कंबोडिया, फिजी, सूरीनाम, श्रीलंका आदि देशों में राम कथा की व्याप्ति तथा उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने का भाव राम को वैश्विक फलक पर भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में सुस्थापित करता है| स्पष्ट है कि राम का नाम राम में रमण का हेतु है क्योंकि राम नाम रूपी सागर में जाने के पश्चात बाहर निकलने की अपेक्षा तरने की भावना बलवती हो जाती है और इस प्रकार मनुष्य का मन राम में रमकर अतीन्द्रिय सुखों की प्राप्ति करता है|   यदि भारतीय वाङ्मय में राम के स्वरूप का निदर्शन करें तो रामकथा की प्राचीनतम उपस्थिति ‘ऋग्वेद’ के दशम मण्डल के तृतीय सूक्त के

हिंदी सिनेमा, टीवी और ओटीटी में श्रीराम

 मित्रों,  जनवरी मास प्रभु श्रीराम के अपनी जन्मभूमि में पुनर्प्रतिष्ठित होने का माह है। इस पावन पुनीत माह में साहित्य अमृत पत्रिका ने श्रीराम विशेषांक प्रस्तुत किया है, जिसमें हिंदी सिनेमा, टीवी और ओटीटी में श्रीराम शीर्षक से मेरी भी एक समिधा विद्यमान है। सोशल मीडिया के मित्रों के लिए इस लेख का अविकल रूप प्रस्तुत है - हिंदी सिनेमा, टीवी और ओटीटी में श्रीराम  प्रो. पुनीत बिसारिया   भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और संस्कारों में बल्कि हम भारतीयों के हृदयस्थल और रोम-रोम में श्रीराम विराजते हैं, फिर भी आम जन प्रायः यह मानता है कि सिनेमा जैसा अपेक्षाकृत आधुनिक माध्यम पूर्णतः पाश्चात्य रंग में रँगा हुआ है और भारतीय संस्कृति में बसने वाले श्रीराम की कथा मंदाकिनी का चित्रण प्रायः इसमें कम हुआ है और यदि हुआ भी है, तो ऐसी फिल्मों को सीमित अथवा अत्यल्प मात्रा में ही सफलता मिल पाई है, लेकिन यदि हम विगत 110 वर्षों के भारतीय सिनेमाई इतिहास, विशेषकर हिंदी सिनेमा की ओर देखें तो सच्चाई इसके ठीक विपरीत दिखाई पड़ती है| आइए, इसका विहंगावलोकन करते हैं|   भारतीय सिनेमा के प्रारंभ से पूर्व हिंदी नाटक मं

अमर प्रेम का प्रतीक : करवा चौथ

अनेक ऐसे त्योहार आते हैं जो हमें रिश्तों की गहराइयों तथा उसके अर्थ से परिचित करवाते हैं। करवा चौथ भी उन्हीं त्योहारों में से एक है। यह पर्व प्रतिवर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है।  वास्तव में करवा चौथ पति-पत्नी के बीच आत्मिक रिश्ते का प्रतीक है। यह सहज आत्मिक प्यार ही इस रिश्ते को ताउम्र मधुर बनाए रखता है। करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है। सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दिया जाने वाला उपहार है। करवा चौथ शब्द की उत्पत्ति करवा औरचौथ दो शब्दों के योग से हुई है। करवा का अर्थ है मिट्टी का कलशनुमा पात्र। इस व्रत में करवे की पूजा को महत्वपूर्ण माना गया है। करवे को श्री गणेश का स्वरूप मानकर इसकी पूजा की जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार पूजा के पश्चात इस करवे का दान करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। वहीं, चूंकि यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है इसलिए इसे करवा चौथ व्रत कहा जाता है। यह त्योहार पति-पत्नी के अमर प्रेम तथा पत्नी का अपने पति के प्रति समर्पण का प्रतीक है। वास्तव में करवा चौथ का त्योहार भारतीय संस्कृति के उस पवित्र बंधन का प

हिन्दी सिनेमा के पतन के कारण

 बीते कुछ वर्षों में हिन्दी सिनेमा का लगातार पराभव हो रहा है, जो हिन्दी और हिन्दी सिनेमा के भविष्य के लिए शुभ लक्षण नहीं है। दुखद किन्तु सत्य यह भी है कि हिन्दी सिनेमा के क्षरण  के लिए खुद हिन्दी सिनेमा ही उत्तरदायी है। मेरे विचार से हिन्दी सिनेमा के पतनोन्मुख होने के लिए निम्नांकित कारण हैं- 1. अच्छी और मौलिक कहानियों का अभाव होना। 2. भेड़चाल की प्रवृत्ति। 3. भाई भतीजावाद। 4. श्रेष्ठ कलाकारों को अवसर न देना। 5. पश्चिम की फिल्मों की फूहड़ नकल करना। 6. साहित्य से दूरी रखना। 7. अच्छे गीतकारों के स्थान पर कानफोडू बेसिरपैर के गीत लिखने वालों को प्रश्रय देना। 8. अगला भाग बनाने की होड़ में अंत के साथ खिलवाड़ करना।© प्रो.पुनीत बिसारिया 9. भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म को हेय दृष्टि से देखना। 10. ओवरसीज बिजनेस को प्रमुखता देना। 11. हिन्दी सिनेमा से हिन्दी को लगातार दूर करना। 12. श्रेष्ठ कलाकारों की अगली पीढ़ी तैयार न होने देना। 13. अत्यधिक अंग प्रदर्शन और गालियों को शामिल करना। 14. हाई सोसायटी और मल्टी प्लेक्स थिएटर के लिए फिल्म बनाने को प्रमुखता देना। 15. लगातार फ्लॉप हो रहे कलाकारों विशेषकर

स्वाधीनता संग्राम की सर्वाधिक जाज्वल्यमान ज्योति वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई, मराठा राजवंश और झाँसी का प्रामाणिक इतिहास है यह ग्रंथ

 मित्रों, हर्ष का विषय है कि देश के वयोवृद्ध इतिहासकार, शायर, चित्रकार और पत्रकार साहित्य भूषण श्री ओमशंकर खरे 'असर' जी का बहुप्रतीक्षित इतिहास ग्रंथ 'महारानी लक्ष्मीबाई और मराठाकालीन झाँसी' मेरे सम्पादन में अनंग प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होकर आज से पाठकों के लिए उपलब्ध होने जा रहा है। पुस्तक खरीदने के इच्छुक पाठक मित्रगण अनंग प्रकाशन, दिल्ली से इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मुझे प्रसन्नता है कि आदरणीय असर जी के जीवन काल में क्यों मुझे याद बहुत आता है चेहरा कोई और आबशार ग़ज़ल संग्रहों के पश्चात उनका तीसरा ग्रंथ मेरे सम्पादन में आप सबके बीच आ रहा है। पुस्तक को समझने हेतु मेरे द्वारा पुस्तक में लिखी गई भूमिका आप सबके समक्ष प्रस्तुत है, जिससे आप सब इस पुस्तक के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं - स्वाधीनता संग्राम की सर्वाधिक जाज्वल्यमान ज्योति वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई, मराठा राजवंश और झाँसी का प्रामाणिक इतिहास है यह ग्रंथ झाँसी सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम का प्रमुख केंद्र रहा है| झाँसी की शौर्यमूर्ति मराठा महारानी लक्ष्मीबाई ने  अप्रतिम वीरत्

भारत सरकार की सराहनीय पहल

 कई बार भारत सरकार की श्रेष्ठ पहल का उतना प्रचार प्रसार नहीं हो पाता और बेहतरीन कदम प्रायः लोगों की नज़रों से दूर रह जाते हैं। मुझे भी दो दिन पहले ज्ञात हुआ कि अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने अनुवादिनी नाम का कृत्रिम बुद्धिमत्ता से युक्त अनुवाद टूल विकसित किया है, जिसमें लिखित या मुद्रित शब्दों, चित्रों या बोलकर कही गई बात का बड़ी आसानी से  कुल 22 भारत की क्षेत्रीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं में परस्पर अनुवाद किया जा सकता है तथा इन्हें संपादित और संशोधित किया जा सकता है। इसमें बीस पृष्ठों को एक बार में स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनूदित करने की सुविधा उपलब्ध है। इससे अधिक अनुवाद करने हेतु अनुमति की आवश्यकता होगी। भारत सरकार के इस महत्त्वपूर्ण कदम से विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के साहित्य, संस्कृति और ज्ञान कोष को एक दूसरे से जोड़ने में सहायता मिलेगी, राष्ट्रीय एकता प्रगाढ़ होगी, वैश्विक धरातल पर भारतीय ज्ञान का प्रवाह सुगम होगा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप विभिन्न भाषाओं में लेखन सुगम होगा, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना साकार होगी और हम जैसे लेखकों को विभिन्न भाषाओं का विस्तृत

सर्वोच्च बलिदान के अप्रतिम शिखर लाला हरदौल की पावन जीवन गाथा है ‘लाला हरदौल’

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 विख्यात फिल्म निर्देशक और लेखक भाई हेमंत वर्मा ने बुंदेलखंड के लोक देवता वीरवर हरदौल के पावन जीवन चरित्र को केंद्र में रखते हुए लाला हरदौल शीर्षक से उपन्यास लिखा है, जो प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। बेहद जीवंत, प्रभावशाली भाषा शैली से सज्जित इस उपन्यास को यदि आप एक बार पढ़ना शुरू करेंगे तो इसमें डूब जाने की गारंटी है। गत वर्ष इसकी जो भूमिका लिखी थी, उसका अविरल रूप हेमंत जी को पुनः बधाई के साथ आप सबके समक्ष प्रस्तुत है - सर्वोच्च बलिदान के अप्रतिम शिखर लाला हरदौल की पावन जीवन गाथा है ‘लाला हरदौल’हि साहित्य मनुष्यता के विविध स्वरूपों के प्रेक्षण की प्रयोगशाला है और जब इसमें ऐतिहासिक घटनाओं का समाहार हो जाता है तो यह अतीत के प्रेरक व्यक्तित्वों के चरित्रांकन के माध्यम से वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए सबक देने तथा उन व्यक्तित्वों से प्रेरणा प्राप्त करने का सशक्त माध्यम बन जाता है. हिन्दी साहित्यकाश में ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण लेखक उपन्यासकार हुए हैं, जिन्होंने अतीत के गौरव गान के द्वारा साहित्य कोश की श्रीवृद्धि करते हुए अनेक प्रेरक व्यक्तियों महापुरुषों की गाथाओं को सा

ते जड़जीव निजात्मक घाती, जिन्हहिं न रघुपति कथा सोहाती

 कवित विवेक एक नहिं मोरे, सत्य कहहुँ लिख कागद कोरे। उक्त पंक्तियां लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी को उनके नालायक परवर्ती जिस प्रकार संबोधित कर रहे हैं, उससे दुःख होता है। कवि युगदृष्टा होता है और अपने युग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सर्जना करता है। अगर उसे 500 साल बाद का समाज अपने दौर की कसौटी पर कसना चाहेगा तो तुलसी ही नहीं नाथ, सिद्ध, जगनिक, चंदबरदाई, कबीर, सूर, केशव, बिहारी, यहां तक कि भारतेंदु, निराला प्रभृति प्रायः सभी कवि काल बाह्य हो जाएंगे।  तनिक हम तुलसी युगीन परिस्थितियों को देखें कि वे कौन से हालात थे, जिनमें विपरीत सामाजिक परिस्थितियों, अपने प्रति हुए घोर अत्याचारों के बाद भी वे सामाजिक एक्य के लिए कार्य करते हैं। श्रीराम की लीलाओं के मंचन के माध्यम से समाज को जोड़ते हैं, ऐसे राम राज्य की संकल्पना करते हैं, जिसमें स्त्री, पुरुष, दलित, दमित कोई भी अबुध या लक्षणहीन न हो। वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की पुनीत कथा भगवान शिव से पार्वती को सुनवाते हैं और इस प्रकार शैव, शाक्त और वैष्णव को एक कर देते हैं। उनकी कथा वास्तव में वह है जिसे काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ को सुनाया था

कलात्मक फिल्म है कला

 जिस दौर की फिल्मों में रंगों को बेशर्म बताया जा रहा हो, केवल अश्लीलता सफलता की कसौटी बनाई जा रही हो, पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अंध अनुराग प्रदर्शित किया जा रहा हो, भारतीय शास्त्रीय संगीत कोमा में जा चुका हो, ओटीटी प्लेटफार्म अश्लीलता के संवाहक बनकर सामने आ रहे हों, तब नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित अन्विता दत्त की फिल्म कला कला के प्रति आशा जगाती है और बताती है कि भारत का सिनेमा भारतीयता और सुरीलेपन को नहीं भुला सकता। कला फिल्म की कहानी आज़ादी से लगभग 10 वर्ष पूर्व की है, जिसमें स्त्री विमर्श की छौंक है, फिल्म जगत की क्रूर सच्चाइयां हैं, मां का सगी बेटी के प्रति अन्याय है, बेटी का सफलता प्राप्त करने के लिए किया गया वह कार्य है, जिसके लिए वह कभी खुद को माफ़ नहीं कर पाती। फिल्म के अनेक गीत रागों पर आधारित हैं, जो गर्म तपती हवा के बीच शीतल मन्द सुगंधित बयार की भांति हैं। बलमा घोड़े पे क्यों सवार है, फेरो न नज़रिया, बिखरने का मुझको शौक है बड़ा जैसे गीत बेहद खूबसूरत हैं और कबीर का निर्गुण उड़ जाएगा हंस अकेला तो कहानी से ऐसा घुल मिल गया है कि ऐसा लगता है मानो इस फिल्म के लिए ही लिखा गया हो। सिरी

हिंदी विरोध के नाम पर देशद्रोह बर्दाश्त नहीं है

 लगता है कि जहां जहां खुराफात होगी, वहां वहां श्रीमान कपिल सिब्बल महाशय अवश्य मौजूद होंगे। कल चेन्नई की थाउसैंड लाइट्स विधानसभा के डीएमके विधायक और आरम सैय विरुंबु ट्रस्ट  के प्रतिनिधि एशिलन नागनाथन की ओर से एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य को केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की समवर्ती सूची से हटाकर राज्यों की सूची में शामिल करने का अनुरोध किया गया है। वादियों, जिनमें परदे के पीछे से तमिलनाडु सरकार भी शामिल है और तमिलनाडु सरकार की ओर से सिब्बल महाशय का तर्क है कि आपातकाल के दौरान सन 1976 में उनकी ही पार्टी की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा किए गए 42वें संविधान संशोधन से पहले ये दोनों विषय राज्य की सूची में थे। उनका कहना है कि केंद्र को सिर्फ इन विषयों पर सहयोग करना चाहिए और भाषा, सेहत गुणवत्ता आदि विषय राज्यों पर ही छोड़ देने चाहिए। तमिलनाडु की धरती से हिंदी विरोध की यह प्रच्छन्न साजिश अत्यंत गंभीर है क्योंकि हिंदी के विरुद्ध खड़े होने के साथ साथ ये लोग देश की शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य के साथ भी भयंकर खिलवाड़ करके अपनी राजनीति को चमकाना चाहते हैं। इ